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Bible in 90 Days

An intensive Bible reading plan that walks through the entire Bible in 90 days.
Duration: 88 days
Hindi Bible: Easy-to-Read Version (ERV-HI)
Version
अय्यूब 25-41

बिल्दद का अय्यूब को उत्तर

25 फिर शूह प्रदेश के निवासी बिल्दद ने उत्तर देते हुये कहा:

“परमेश्वर शासक है और हर व्यक्ति को चाहिये की
    परमेश्वर से डरे और उसका मान करे।
    परमेश्वर अपने स्वर्ग के राज्य में शांति रखता है।
कोई उसकी सेनाओं को गिन नहीं सकता है,
    परमेश्वर का प्रकाश सब पर चमकता है।
किन्तु सचमुच परमेश्वर के आगे कोई व्यक्ति उचित नहीं ठहर सकता है।
    कोई व्यक्ति जो स्त्री से उत्पन्न हुआ सचमुच निर्दोष नहीं हो सकता है।
परमेश्वर की आँखों के सामने चाँद तक चमकीला नहीं है।
    परमेश्वर की आँखों के सामने तारे निर्मल नहीं हैं।
मनुष्य तो बहुत कम भले है।
    मनुष्य तो बस गिंडार है एक ऐसा कीड़ा जो बेकार का होता है।”

अय्यूब का बिल्दद को उत्तर:

26 तब अय्यूब ने कहा:

“हे बिल्दद, सोपर और एलीपज जो लोग दुर्बल हैं तुम सचमुच उनको सहारा दे सकते हो।
    अरे हाँ! तुमने दुर्बल बाँहों को फिर से शक्तिशाली बनाया है।
हाँ, तुमने निर्बुद्धि को अद्भुत सम्मत्ति दी है।
    कैसा महाज्ञान तुमने दिखाया है!
इन बातों को कहने में किसने तुम्हारी सहायता की?
    किसकी आत्मा ने तुम को प्रेरणा दी?

“जो लोग मर गये है
    उनकी आत्मायें धरती के नीचे जल में भय से प्रकंपित हैं।
मृत्यु का स्थान परमेश्वर की आँखों के सामने खुला है,
    परमेश्वर के आगे विनाश का स्थान ढका नहीं है।
उत्तर के नभ को परमेश्वर फैलाता है।
    परमेश्वर ने व्योम के रिक्त पर अधर में धरती लटकायी है।
परमेश्वर बादलों को जल से भरता है,
    किन्तु जल के प्रभार से परमेश्वर बादलों को फटने नहीं देता है।
परमेश्वर पूरे चन्द्रमा को ढकता है,
    परमेश्वर चाँद पर निज बादल फैलाता है और उसको ढक देता है।
10 परमेश्वर क्षितिज को रचता है
    प्रकाश और अन्धकार की सीमा रेखा के रूप में समुद्र पर।
11 जब परमेश्वर डाँटता है तो
    वे नीवें जिन पर आकाश टिका है भय से काँपने लगती है।
12 परमेश्वर की शक्ति सागर को शांत कर देती है।
    परमेश्वर की बुद्धि ने राहब (सागर के दैत्य) को नष्ट किया।
13 परमेश्वर का श्वास नभ को साफ कर देता है।
    परमेश्वर के हाथ ने उस साँप को मार दिया जिसमें भाग जाने का यत्न किया था।
14 ये तो परमेश्वर के आश्चर्यकर्मों की थोड़ी सी बातें हैं।
    बस हम थोड़ा सा परमेश्वर के हल्की—ध्वनि भरे स्वर को सुनते हैं।
किन्तु सचमुच कोई व्यक्ति परमेश्वर के शक्ति के गर्जन को नहीं समझ सकता है।”

27 फिर अय्यूब ने आगे कहा:

“सचमुच परमेश्वर जीता है और यह जितना सत्य है कि परमेश्वर जीता है
    सचमुच वह वैसे ही मेरे प्रति अन्यायपूर्ण रहा है।
हाँ! सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने मेरे जीवन में कड़वाहट भरी है।
    किन्तु जब तक मुझ में प्राण है
    और परमेश्वर का साँस मेरी नाक में है।
तब तक मेरे होंठ बुरी बातें नहीं बोलेंगी,
    और मेरी जीभ कभी झूठ नहीं बोलेगी।
मैं कभी नहीं मानूँगा कि तुम लोग सही हो!
    जब तक मैं मरूँगा उस दिन तक कहता रहूँगा कि मैं निर्दोष हूँ!
मैं अपनी धार्मिकता को दृढ़ता से थामें रहूँगा।
    मैं कभी उचित कर्म करना न छोडूँगा।
    मेरी चेतना मुझे तंग नहीं करेगी जब तक मैं जीता हूँ।
मेरे शत्रुओं को दुष्ट जैसा बनने दे,
    और उन्हें दण्डित होने दे जैसे दुष्ट जन दण्डित होते हैं।
ऐसे उस व्यक्ति के लिये मरते समय कोई आशा नहीं है जो परमेश्वर की परवाह नहीं करता है।
    जब परमेश्वर उसके प्राण लेगा तब तक उसके लिये कोई आशा नहीं है।
जब वह बुरा व्यक्ति दु:खी पड़ेगा और उसको पुकारेगा,
    परमेश्वर नहीं सुनेगा।
10 उसको चाहिये था कि वह उस आनन्द को चाहे जिसे केवल सर्वशक्तिमान परमेश्वर देता है।
    उसको चाहिये की वह हर समय परमेश्वर से प्रार्थना करता रहा।

11 “मैं तुमको परमेश्वर की शक्ति सिखाऊँगा।
    मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर की योजनायें नहीं छिपाऊँगा।
12 स्वयं तूने निज आँखों से परमेश्वर की शक्ति देखी है,
    सो क्यों तू व्यर्थ बातें बनाता है

13 “दुष्ट लोगों के लिये परमेश्वर ने ऐसी योजना बनाई है,
    दुष्ट लोगों को सर्वशक्तिशाली परमेश्वर से ऐसा ही मिलेगा।
14 दुष्ट की चाहे कितनी ही संताने हों, किन्तु उसकी संताने युद्ध में मारी जायेंगी।
    दुष्ट की संताने कभी भरपेट खाना नहीं पायेंगी।
15 और यदि दुष्ट की संताने उसकी मृत्यु के बाद भी जीवित रहें तो महामारी उनको मार डालेंगी!
    उनके पुत्रों की विधवायें उनके लिये दु:खी नहीं होंगी।
16 दुष्ट जन चाहे चाँदी के ढेर इकट्ठा करे,
    इतने विशाल ढेर जितनी धूल होती है, मिट्टी के ढेरों जैसे वस्त्र हो उसके पास
17 जिन वस्त्रों को दुष्ट जन जुटाता रहा उन वस्त्रों को सज्जन पहनेगा,
    दुष्ट की चाँदी निर्दोषों में बँटेगी।
18 दुष्ट का बनाया हुआ घर अधिक दिनों नहीं टिकता है,
    वह मकड़ी के जाले सा अथवा किसी चौकीदार के छप्पर जैसा अस्थिर होता है।
19 दुष्ट जन अपनी निज दौलत के साथ अपने बिस्तर पर सोने जाता है,
    किन्तु एक ऐसा दिन आयेगा जब वह फिर बिस्तर में वैसे ही नहीं जा पायेगा।
    जब वह आँख खोलेगा तो उसकी सम्पत्ति जा चुकेगी।
20 दु:ख अचानक आई हुई बाढ़ सा उसको झपट लेंगे,
    उसको रातों रात तूफान उड़ा ले जायेगा।
21 पुरवाई पवन उसको दूर उड़ा देगी,
    तूफान उसको बुहार कर उसके घर के बाहर करेगा।
22 दुष्ट जन तूफान की शक्ति से बाहर निकलने का जतन करेगा
    किन्तु तूफान उस पर बिना दया किये हुए चपेट मारेगा।
23 जब दुष्ट जन भागेगा, लोग उस पर तालियाँ बजायेंगे, दुष्ट जन जब निकल भागेगा।
    अपने घर से तो लोग उस पर सीटियाँ बजायेंगे।

28 “वहाँ चाँदी की खान है जहाँ लोग चाँदी पाते है,
    वहाँ ऐसे स्थान है जहाँ लोग सोना पिघला करके उसे शुद्ध करते हैं।
लोग धरती से खोद कर लोहा निकालते है,
    और चट्टानों से पिघला कर ताँबा निकालते हैं।
लोग गुफाओं में प्रकाश को लाते हैं वे गुफाओं की गहराई में खोजा करते हैं,
    गहरे अन्धेरे में वे खनिज की चट्टानें खोजते हैं।
जहाँ लोग रहते है उससे बहुत दूर लोग गहरे गढ़े खोदा करते हैं
    कभी किसी और ने इन गढ़ों को नहीं छुआ।
    जब व्यक्ति गहन गर्तो में रस्से से लटकता है, तो वह दूसरों से बहुत दूर होता है।
भोजन धरती की सतह से मिला करता है,
    किन्तु धरती के भीतर वह बढ़त जाया करता है
    जैसे आग वस्तुओं को बदल देती है।
धरती के भीतर चट्टानों के नीचे नीलम मिल जाते हैं,
    और धरती के नीचे मिट्टी अपने आप में सोना रखती है।
जंगल के पक्षी धरती के नीचे की राहें नहीं जानते हैं
    न ही कोई बाज यह मार्ग देखता है।
इस राह पर हिंसक पशु नहीं चले,
    कभी सिंह इस राह पर नहीं विचरे।
मजदूर कठिन चट्टानों को खोदते हैं
    और पहाड़ों को वे खोद कर जड़ से साफ कर देते हैं।
10 काम करने वाले सुरंगे काटते हैं,
    वे चट्टान के खजाने को चट्टानों के भीतर देख लिया करते हैं।
11 काम करने वाले बाँध बाँधा करते हैं कि पानी कहीं ऊपर से होकर न वह जाये।
    वे छुपी हुई वस्तुओं को ऊपर प्रकाश में लाते हैं।

12 “किन्तु कोई व्यक्ति विवेक कहाँ पा सकता है
    और हम कहाँ जा सकते हैं समझ पाने को
13 ज्ञान कहाँ रहता है लोग नहीं जानते हैं,
    लोग जो धरती पर रहते हैं, उनमें विवेक नहीं रहता है।
14 सागर की गहराई कहती है, ‘मुझ में विवेक नहीं।’
    और समुद्र कहता है, ‘यहाँ मुझ में ज्ञान नहीं है।’
15 विवेक को अति मूल्यवान सोना भी मोल नहीं ले सकता है,
    विवेक का मूल्य चाँदी से नहीं गिना जा सकता है।
16 विवेक ओपीर देश के सोने से
    अथवा मूल्यवान स्फटिक से अथवा नीलमणियों से नहीं खरीदा जा सकता है।
17 विवेक सोने और स्फटिक से अधिक मूल्यवान है,
    कोई व्यक्ति अति मूल्यवान सुवर्ण जड़ित रत्नों से विवेक नहीं खरीद सकता है।
18 विवेक मूंगे और सूर्यकांत मणि से अति मूल्यवान है।
    विवेक मानक मणियों से अधिक महंगा है।
19 जितना उत्तम विवेक है कूश देश का पदमराग भी उतना उत्तम नहीं है।
    विवेक को तुम कुन्दन से मोल नहीं ले सकते हो।

20 “तो फिर हम कहाँ विवेक को पाने जायें?
    हम कहाँ समझ सीखने जायें?
21 विवेक धरती के हर व्यक्ति से छुपा हुआ है।
    यहाँ तक की ऊँचे आकाश के पक्षी भी विवेक को नहीं देख पाते हैं।
22 मृत्यु और विनाश कहा करते है कि
    हमने तो बस विवेक की बाते सुनी हैं।

23 “किन्तु बस परमेश्वर विवेक तक पहुँचने की राह को जानता है।
    परमेश्वर जानता है विवेक कहाँ रहता है।
24 परमेश्वर विवेक को जानता है क्योंकि वह धरती के आखिरी छोर तक देखा करता है।
    परमेश्वर हर उस वस्तु को जो आकाश के नीचे है देखा करता है।
25 जब परमेश्वर ने पवन को उसकी शक्ति प्रदान की
    और यह निश्चित किया कि समुद्रों को कितना बड़ा बनाना है।
26 और जब परमेश्वर ने निश्चय किया कि उसे कहाँ वर्षा को भेजना है,
    और बवण्डरों को कहाँ की यात्रा करनी है।
27 तब परमेश्वर ने विवेक को देखा था,
    और उसको यह देखने के लिये परखा था कि विवेक का कितना मूल्य है, तब परमेश्वर ने विवेक का समर्थन किया था।
28 और लोगों से परमेश्वर ने कहा था कि
    ‘यहोवा का भय मानो और उसको आदर दो।
    बुराईयों से मुख मोड़ना ही विवेक है, यही समझदारी है।’”

अय्यूब अपनी बात जारी रखता है

29 अपनी बात को जारी रखते हुये अय्यूब ने कहा:

“काश! मेरा जीवन वैसा ही होता जैसा गुजरे महीनों में था।
    जब परमेश्वर मेरी रखवाली करता था, और मेरा ध्यान रखता था।
मैं ऐसे उस समय की इच्छा करता हूँ जब परमेश्वर का प्रकाश मेरे शीश पर चमक रहा था।
    मुझ को प्रकाश दिखाने को उस समय जब मैं अन्धेरे से हो कर चला करता था।
ऐसे उन दिनों की मैं इच्छा करता हूँ, जब मेरा जीवन सफल था और परमेश्वर मेरा निकट मित्र था।
    वे ऐसे दिन थे जब परमेश्वर ने मेरे घर को आशीष दी थी।
ऐसे समय की मैं इच्छा करता हूँ, जब सर्वशक्तिशाली परमेश्वर अभी तक मेरे साथ में था
    और मेरे पास मेरे बच्चे थे।
ऐसा तब था जब मेरा जीवन बहुत अच्छा था, ऐसा लगा करता था कि दूध—दही की नदियाँ बहा करती थी,
    और मेरे हेतू चट्टाने जैतून के तेल की नदियाँ उँडेल रही हैं।

“ये वे दिन थे जब मैं नगर—द्वार और खुले स्थानों में जाता था,
    और नगर नेताओं के साथ बैठता था।
वहाँ सभी लोग मेरा मान किया करते थे।
    युवा पुरुष जब मुझे देखते थे तो मेरी राह से हट जाया करते थे।
    और वृद्ध पुरुष मेरे प्रति सम्मान दर्शाने के लिये उठ खड़े होते थे।
जब लोगों के मुखिया मुझे देख लेते थे,
    तो बोलना बन्द किया करते थे।
10 यहाँ तक की अत्यन्त महत्वपूर्ण नेता भी अपना स्वर नीचा कर लेते थे,
    जब मैं उनके निकट जाया करता था।
हाँ! ऐसा लगा करता था कि
    उनकी जिहवायें उनके तालू से चिपकी हों।
11 जिस किसी ने भी मुझको बोलते सुना, मेरे विषय में अच्छी बात कही,
    जिस किसी ने भी मुझको देखा था, मेरी प्रशंसा की थी।
12 क्यों? क्योंकि जब किसी दीन ने सहायता के लिये पुकारा, मैंने सहायता की।
    उस बच्चे को मैंने सहारा दिया जिसके माँ बाप नहीं और जिसका कोई भी नहीं ध्यान रखने को।
13 मुझको मरते हुये व्यक्ति की आशीष मिली,
    मैंने उन विधवाओं को जो जरुरत में थी,
    मैंने सहारा दिया और उनको खुश किया।
14 मेरा वस्त्र खरा जीवन था,
    निष्पक्षता मेरे चोगे और मेरी पगड़ी सी थी।
15 मैं अंधो के लिये आँखे बन गया
    और मैं उनके पैर बना जिनके पैर नहीं थे।
16 दीन लोगों के लिये मैं पिता के तुल्य था,
    मैं पक्ष लिया करता था ऐसे अनजानों का जो विपत्ति में पड़े थे।
17 मैं दुष्ट लोगों की शक्ति नष्ट करता था।
    निर्दोष लोगों को मैं दुष्टों से छुड़ाता था।

18 “मैं सोचा करता था कि सदा जीऊँगा
    ओर बहुत दिनों बाद फिर अपने ही घर में प्राण त्यागूँगा।
19 मैं एक ऐसा स्वस्थ वृक्ष बनूँगा जिसकी जड़े सदा जल में रहती हों
    और जिसकी शाखायें सदा ओस से भीगी रहती हों।
20 मेरी शान सदा ही नई बनी रहेगी,
    मैं सदा वैसा ही बलवान रहूँगा जैसे,
    मेरे हाथ में एक नया धनुष।

21 “पहले, लोग मेरी बात सुना करते थे,
    और वे जब मेरी सम्मत्ति की प्रतीक्षा किया करते थे,
    तो चुप रहा करते थे।
22 मेरे बोल चुकने के बाद, उन लोगों के पास जो मेरी बात सुनते थे, कुछ भी बोलने को नहीं होता था।
    मेरे शब्द धीरे—धीरे उनके कानों में वर्षा की तरह पड़ा करते थे।
23 लोग जैसे वर्षा की बाट जोहते हैं वैसे ही वे मेरे बोलने की बाट जोहा करते थे।
    मेरे शब्दों को वे पी जाया करते थे, जैसे मेरे शब्द बसन्त में वर्षा हों।
24 जब मैं दया करने को उन पर मुस्कराता था, तो उन्हें इसका यकीन नहीं होता था।
    फिर मेरा प्रसन्न मुख दु:खी जन को सुख देता था।
25 मैंने उत्तरदायित्व लिया और लोगों के लिये निर्णय किये, मैं नेता बन गया।
    मैंने उनकी सेना के दलों के बीच राजा जैसा जीवन जिया।
मैं ऐसा व्यक्ति था जो उन लोगों को चैन देता था जो बहुत ही दु:खी है।

30 “अब, आयु में छोटे लोग मेरा माजक बनाते हैं।
    उन युवा पुरुषों के पित बिलकुल ही निकम्मे थे।
    जिनको मैं उन कुत्तों तक की सहायता नहीं करने देता था जो भेंड़ों के रखवाले हैं।
उन युवा पुरुषों के पिता मुझे सहारा देने की कोई शक्ति नहीं रखते हैं,
    वे बूढे हो चुके हैं और थके हुये हैं।
वे व्यक्ति मुर्दे जैसे हैं क्योंकि खाने को उनके पास कुछ नहीं है
    और वे भूखे हैं, सो वे मरुभूमि के सूखे कन्द खाना चाहते हैं।
वे लोग मरुभूमि में खारे पौधों को उखाड़ते हैं
    और वे पीले फूल वाले पीलू के पेड़ों की जड़ों को खाते हैं।
वे लोग, दूसरे लोगों से भगाये गये हैं
    लोग जैसे चोर पर पुकारते हैं उन पर पुकारते हैं।
ऐसे वे बूढ़े लोग सूखी हुई नदी के तलों में
    चट्टानों के सहारे और धरती के बिलों में रहने को विवश हैं।
वे झाड़ियों के भीतर रेंकते हैं।
    कंटीली झाड़ियों के नीचे वे आपस में एकत्र होते हैं।
वे बेकार के लोगों का दल है, जिनके नाम तक नहीं हैं।
    उनको अपना गाँव छोड़ने को मजबूर किया गया है।

“अब ऐसे उन लोगों के पुत्र मेरी हँसी उड़ाने को मेरे विषय में गीत गाते हैं।
    मेरा नाम उनके लिये अपशब्द सा बन गया है।
10 वे युवक मुझसे घृणा करते हैं।
    वे मुझसे दूर खड़े रहते हैं और सोचते हैं कि वे मुझसे उत्तम हैं।
यहाँ तक कि वे मेरे मुँह पर थूकते हैं।
11 परमेश्वर ने मेरे धनुष से उसकी डोर छीन ली है और मुझे दुर्बल किया है।
    वे युवक अपने आप नहीं रुकते हैं बल्कि क्रोधित होते हुये मुझ पर मेरे विरोध में हो जाते हैं।
12 वे युवक मेरी दाहिनी ओर मुझ पर प्रहार करते हैं।
    वे मुझे मिट्टी में गिराते हैं वे ढलुआ चबूतरे बनाते हैं,
    मेरे विरोध में मुझ पर प्रहार करके मुझे नष्ट करने को।
13 वे युवक मेरी राह पर निगरानी रखते हैं कि मैं बच निकल कर भागने न पाऊँ।
    वे मुझे नष्ट करने में सफल हो जाते हैं।
    उनके विरोध में मेरी सहायता करने को मेरे साथ कोई नहीं है।
14 वे मुझ पर ऐसे वार करते हैं, जैसे वे दिवार में सूराख निकाल रहें हो।
    एक के बाद एक आती लहर के समान वे मुझ पर झपट कर धावा करते हैं।
15 मुझको भय जकड़ लेता है।
    जैसे हवा वस्तुओं को उड़ा ले जाती है, वैसी ही वे युवक मेरा आदर उड़ा देते हैं।
    जैसे मेघ अदृश्य हो जाता है, वैसे ही मेरी सुरक्षा अदृश्य हो जाती है।

16 “अब मेरा जीवन बीतने को है और मैं शीघ्र ही मर जाऊँगा।
    मुझको संकट के दिनों ने दबोच लिया है।
17 मेरी सब हड्डियाँ रात को दुखती हैं,
    पीड़ा मुझको चबाना नहीं छोड़ती है।
18 मेरे गिरेबान को परमेश्वर बड़े बल से पकड़ता है,
    वह मेरे कपड़ों का रूप बिगाड़ देता है।
19 परमेश्वर मुझे कीच में धकेलता है
    और मैं मिट्टी व राख सा बनता हूँ।

20 “हे परमेश्वर, मैं सहारा पाने को तुझको पुकारता हूँ,
    किन्तु तू उत्तर नहीं देता है।
मैं खड़ा होता हूँ और प्रार्थना करता हूँ,
    किन्तु तू मुझ पर ध्यान नहीं देता।
21 हे परमेश्वर, तू मेरे लिये निर्दयी हो गया है,
    तू मुझे हानि पहुँचाने को अपनी शक्ति का प्रयोग करता है।
22 हे परमेश्वर, तू मुझे तीव्र आँधी द्वारा उड़ा देता है।
    तूफान के बीच में तू मुझको थपेड़े खिलाता है।
23 मैं जानता हूँ तू मुझे मेरी मृत्यु की ओर ले जा रहा है
    जहाँ अन्त में हर किसी को जाना है।

24 “किन्तु निश्चय ही कोई मरे हुये को,
    और उसे जो सहायता के लिये पुकारता है, उसको नहीं मारता।
25 हे परमेश्वर, तू तो यह जानता है कि मैं उनके लिये रोया जो संकट में पड़े हैं।
    तू तो यह जानता है कि मेरा मन गरीब लोगों के लिये बहुत दु:खी रहता था।
26 किन्तु जब मैं भला चाहता था, तो बुरा हो जाता था।
    मैं प्रकाश ढूँढता था और अंधेरा छा जाता था।
27 मैं भीतर से फट गया हूँ और यह ऐसा है कि
    कभी नहीं रुकता मेरे आगे संकट का समय है।
28 मैं सदा ही व्याकुल रहता हूँ। मुझको चैन नहीं मिल पाता है।
    मैं सभा के बीच में खड़ा होता हूँ, और सहारे को गुहारता हूँ।
29 मैं जंगली कुत्तों के जैसा बन गया हूँ,
    मेरे मित्र बस केवल शतुर्मुर्ग ही है।
30 मेरी त्वचा काली पड़ गई है।
    मेरा तन बुखार से तप रहा है।
31 मेरी वीणा करुण गीत गाने की सधी है
    और मेरी बांसुरी से दु:ख के रोने जैसे स्वर निकलते हैं।

31 “मैंने अपनी आँखो के साथ एक सन्धि की है कि
    वे किसी लड़की पर वासनापूर्ण दृष्टि न डालें।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर लोगों के साथ कैसा करता है
    वह कैसे अपने ऊँचे स्वर्ग के घर से उनके कर्मो का प्रतिफल देता है
दुष्ट लोगों के लिये परमेश्वर संकट और विनाश भेजता है,
    और जो बुरा करते हैं, उनके लिये विध्वंस भेजता है।
मैं जो कुछ भी करता हूँ परमेश्वर जानता है
    और मेरे हर कदम को वह देखता है।

“यदि मैंने झूठा जीवन जिया हो
    या झूठ बोल कर लोगों को मूर्ख बनाया हो,
तो वह मुझको खरी तराजू से तौले,
    तब परमेश्वर जान लेगा कि मैं निरपराध हूँ।
यदि मैं खरे मार्ग से हटा होऊँ
    यदि मेरी आँखे मेरे मन को बुरे की
    ओर ले गई अथवा मेरे हाथ पाप से गंदे हैं।
तो मेरी उपजाई फसल अन्य लोग खा जाये
    और वे मेरी फसलों को उखाड़ कर ले जायें।

“यदि मैं स्त्रियों के लिये कामुक रहा होऊँ,
    अथवा यदि मैं अपने पड़ोसी के द्वार को उसकी पत्नी के साथ व्यभिचार करने के लिये ताकता रहा होऊँ,
10 तो मेरी पत्नी दूसरों का भोजन तैयार करे
    और उसके साथ पराये लोग सोंये।
11 क्यों? क्योंकि यौन पाप लज्जापूर्ण होता है?
    यह ऐसा पाप है जो निश्चय ही दण्डित होना चाहिये।
12 व्यभिचार उस पाप के समान है, जो जलाती और नष्ट कर डालती है।
    मेरे पास जो कुछ भी है व्यभिचार का पाप उसको जला डालेगा।

13 “यदि मैं अपने दास—दासियों के सामने उस समय निष्पक्ष नहीं रहा,
    जब उनको मुझसे कोई शिकायत रहीं।
14 तो जब मुझे परमेश्वर के सामने जाना होगा,
    तो मैं क्या करूँगा? जब वह मुझ को मेरे कर्मो की सफाई माँगने बुलायेगा तो मैं परमेश्वर को क्या उत्तर दूँगा?
15 परमेश्वर ने मुझको मेरी माता के गर्भ में बनाया, और मेरे दासों को भी उसने माता के गर्भ में हीं बनाया,
    उसने हम दोनों ही को अपनी—अपनी माता के भीतर ही रूप दिया है।

16 “मैंने कभी भी दीन जन की सहायता को मना नहीं किया।
    मैंने विधवाओं को सहारे बिना नहीं रहने दिया।
17 मैं स्वार्थी नहीं रहा।
    मैंने अपने भोजन के साथ अनाथ बच्चों को भूखा नहीं रहने दिया।
18 ऐसे बच्चों के लिये जिनके पिता नहीं है, मैं पिता के जैसा रहा हूँ।
    मैंने जीवन भर विधवाओं का ध्यान रखा है।
19 जब मैंने किसी को इसलिये कष्ट भोगते पाया कि उसके पास वस्त्र नहीं हैं,
    अथवा मैंने किसी दीन को बिना कोट के पाया।
20     तो मैं सदा उन लोगों को वस्त्र देता रहा,
मैंने उन्हें गर्म रखने को मैंने स्वयं अपनी भेड़ों के ऊन का उपयोग किया,
    तो वे मुझे अपने समूचे मन से आशीष दिया करते थे।
21 यदि कोई मैंने अनाथ को छलने का जतन अदालत में किया हो
    यह जानकर की मैं जीतूँ,
22 तो मेरा हाथ मेरे कंधे के जोड़ से ऊतर जाये
    और मेरा हाथ कंधे पर से गिर जाये।
23 किन्तु मैंने तो कोई वैसा बुरा काम नहीं किया।
    क्यों? क्योंकि मैं परमेश्वर के दण्ड से डरता रहा था।

24 “मैंने कभी अपने धन का भरोसा न किया,
    और मैंने कभी नहीं शुद्ध सोने से कहा कि “तू मेरी आशा है!”
25 मैंने कभी अपनी धनिकता का गर्व नहीं किया
    अथवा जो मैंने सम्पत्ति कमाई थी, उसके प्रति मैं आनन्दित हुआ।
26 मैंने कभी चमकते सूरज की पूजा नहीं की
    अथवा मैंने सुन्दर चाँद की पूजा नहीं की।
27 मैंने कभी इतनी मूर्खता नहीं की
    कि सूरज और चाँद को पूजूँ।
28 यदि मैंने इनमें से कुछ किया तो वो मेरा पाप हो और मुझे उसका दण्ड मिले।
    क्योंकि मैं उन बातों को करते हुये सर्वशक्तिशाली परमेश्वर का अविश्वासी हो जाता।

29 “जब मेरे शत्रु नष्ट हुए तो
    मैं प्रसन्न नहीं हुआ,
जब मेरे शत्रुओं पर विपत्ति पड़ी तो,
    मैं उन पर नहीं हँसा।
30 मैंने अपने मुख को अपने शत्रु से बुरे शब्द बोल कर पाप नहीं करने दिया
    और नहीं चाहा कि उन्हें मृत्यु आ जाये।
31 मेरे घर के सभी लोग जानते हैं कि
    मैंने सदा अनजानों को खाना दिया।
32 मैंने सदा अनजानों को अपने घर में बुलाया,
    ताकि उनको रात में गलियों में सोना न पड़े।
33 दूसरे लोग अपने पाप को छुपाने का जतन करते हैं,
    किन्तु मैंने अपना दोष कभी नहीं छुपाया।
34 क्यों क्योंकि लोग कहा करते हैं कि मैं उससे कभी नहीं डरा।
    मैं कभी चुप न रहा और मैंने कभी बाहर जाने से मना नहीं किया
    क्योंकि उन लोगों से जो मेरे प्रति बैर रखते हैं कभी नहीं डरा।

35 “ओह! काश कोई होता जो मेरी सुनता!
    मुझे अपनी बात समझाने दो।
काश! शक्तिशाली परमेश्वर मुझे उत्तर देता।
    काश! वह उन बातों को लिखता जो मैंने गलत किया था उसकी दृष्टि में।
36 क्योंकि निश्चय ही मैं वह लिखावट अपने निज कन्धों पर रख लूँगा
    और मैं उसे मुकुट की तरह सिर पर रख लूँगा।
37 मैंने जो कुछ भी किया है, मैं उसे परमेश्वर को समझाऊँगा।
    मैं परमेश्वर के पास अपना सिर ऊँचा उठाये हुये जाऊँगा, जैसे मैं कोई मुखिया होऊँ।

38 “यदि जिस खेत पर मैं खेती करता हूँ उसको मैंने चुराया हो
    और उसको उसके स्वामी से लिया हो जिससे वह धरती अपने ही आँसुओं से गीली हो।
39 और यदि मैंने कभी बिना मजदूरों को मजदूरी दिये हुये,
    खेत की उपज को खाया हो और मजदूरों को हताश किया हो,
40 हाँ! यदि इनमें से कोई भी बुरा काम मैंने किया हो,
    तो गेहूँ के स्थान पर काँटे और जौ के बजाये खर—पतवार खेतों में उग आयें।”

अय्यूब के शब्द समाप्त हुये!

एलीहू का कथन

32 फिर अय्यूब के तीनों मित्रों ने अय्यूब को उत्तर देने का प्रयत्न करना छोड़ दिया। क्योंकि अय्यूब निश्चय के साथ यह मानता था कि वह स्वयं सचमुच दोष रहित हैं। वहाँ एलीहू नाम का एक व्यक्ति भी था। एलीहू बारकेल का पुत्र था। बारकेल बुज़ नाम के एक व्यक्ति के वंशज था। एलीहू राम के परिवार से था। एलीहू को अय्यूब पर बहुत क्रोध आया क्योंकि अय्यूब कह रहा था कि वह स्वयं नेक है और वह परमेश्वर पर दोष लगा रहा था। एलीहू अय्यूब के तीनों मित्रों से भी नाराज़ था क्योंकि वे तीनों ही अय्यूब के प्रश्नों का युक्ति संगत उत्तर नहीं दे पाये थे और अय्यूब को ही दोषी बता रहे थे। इससे तो फिर ऐसा लगा कि जैसे परमेश्वर ही दोषी था। वहाँ जो लोग थे उनमें एलीहू सबसे छोटा था इसलिए वह तब तक बाट जोहता रहा जब तक हर कोई अपनी अपनी बात पूरी नहीं कर चुका। तब उसने सोचा कि अब वह बोलना शुरु कर सकता हैं। एलीहू ने जब यह देखा कि अय्यूब के तीनों मित्रों के पास कहने को और कुछ नहीं है तो उसे बहुत क्रोध आया। सो एलीहू ने अपनी बात कहना शुरु किया। वह बोला:

“मैं छोटा हूँ और तुम लोग मुझसे बड़े हो,
    मैं इसलिये तुमको वह बताने में डरता था जो मैं सोचता हूँ।
मैंने मन में सोचा कि बड़े को पहले बोलना चाहिये,
    और जो आयु में बड़े है उनको अपने ज्ञान को बाँटना चाहिये।
किन्तु व्यक्ति में परमेश्वर की आत्मा बुद्धि देती है
    और सर्वशक्तिशाली परमेश्वर का प्राण व्यक्ति को ज्ञान देता है।
आयु में बड़े व्यक्ति ही नहीं ज्ञानी होते है।
    क्या बस बड़ी उम्र के लोग ही यह जानते हैं कि उचित क्या है?

10 “सो इसलिये मैं एलीहू जो कुछ मैं जानता हूँ।
    तुम मेरी बात सुनों मैं तुम को बताता हूँ कि मैं क्या सोचता हूँ।
11 जब तक तुम लोग बोलते रहे, मैंने धैर्य से प्रतिक्षा की,
    मैंने तुम्हारे तर्क सुने जिनको तुमने व्यक्त किया था, जो तुमने चुन चुन कर अय्यूब से कहे।
12 जब तुम मार्मिक शब्दों से जतन कर रहे थे, अय्यूब को उत्तर देने का तो मैं ध्यान से सुनता रहा।
    किन्तु तुम तीनों ही यह प्रमाणित नहीं कर पाये कि अय्यूब बुरा है।
    तुममें से किसी ने भी अय्यूब के तर्को का उत्तर नहीं दिया।
13 तुम तीनों ही लोगों को यही नहीं कहना चाहिये था कि तुमने ज्ञान को प्राप्त कर लिया है।
    लोग नहीं, परमेश्वर निश्चय ही अय्यूब के तर्को का उत्तर देगा।
14 किन्तु अय्यूब मेरे विरोध में नहीं बोल रहा था,
    इसलिये मैं उन तर्को का प्रयोग नहीं करुँगा जिसका प्रयोग तुम तीनों ने किया था।

15 “अय्यूब, तेरे तीनो ही मित्र असमंजस में पड़ें हैं,
    उनके पास कुछ भी और कहने को नहीं हैं,
    उनके पास और अधिक उत्तर नहीं हैं।
16 ये तीनों लोग यहाँ चुप खड़े हैं
    और उनके पास उत्तर नहीं है।
    सो क्या अभी भी मुझको प्रतिक्षा करनी होगी?
17 नहीं! मैं भी निज उत्तर दूँगा।
    मैं भी बताऊँगा तुम को कि मैं क्या सोचता हूँ।
18 क्योंकि मेरे पास सहने को बहुत है मेरे भीतर जो आत्मा है,
    वह मुझको बोलने को विवश करती है।
19 मैं अपने भीतर ऐसी दाखमधु सा हूँ, जो शीघ्र ही बाहर उफन जाने को है।
    मैं उस नयी दाखमधु मशक जैसा हूँ जो शीघ्र ही फटने को है।
20 सो निश्चय ही मुझे बोलना चाहिये, तभी मुझे अच्छा लगेगा।
    अपना मुख मुझे खोलना चाहिये और मुझे अय्यूब की शिकायतों का उत्तर देना चाहिये।
21 इस बहस में मैं किसी भी व्यक्ति का पक्ष नहीं लूँगा
    और मैं किसी का खुशामद नहीं करुँगा।
22 मैं नहीं जानता हूँ कि कैसे किसी व्यक्ति की खुशामद की जाती है।
    यदि मैं किसी व्यक्ति की खुशामद करना जानता तो शीघ्र ही परमेश्वर मुझको दण्ड देता।

33 “किन्तु अय्यूब अब, मेरा सन्देश सुन।
    उन बातों पर ध्यान दे जिनको मैं कहता हूँ।
मैं अपनी बात शीघ्र ही कहनेवाला हूँ, मैं अपनी बात कहने को लगभग तैयार हूँ।
मन मेरा सच्चा है सो मैं सच्चा शब्द बोलूँगा।
    उन बातों के बारे में जिनको मैं जानता हूँ मैं सत्य कहूँगा।
परमेश्वर की आत्मा ने मुझको बनाया है,
    मुझे सर्वशक्तिशाली परमेश्वर से जीवन मिलता है।
अय्यूब, सुन और मुझे उत्तर दे यदि तू सोचता है कि तू दे सकता है।
    अपने उत्तरों को तैयार रख ताकि तू मुझसे तर्क कर सके।
परमेश्वर के सम्मुख हम दोनों एक जैसे हैं,
    और हम दोनों को ही उसने मिट्टी से बनाया है।
अय्यूब, तू मुझ से मत डर।
    मैं तेरे साथ कठोर नहीं होऊँगा।

“किन्तु अय्यूब, मैंने सुना है कि
    तू यह कहा करता हैं,
तूने कहा था, कि मैं अय्यूब, दोषी नहीं हूँ, मैंने पाप नहीं किया,
    अथवा मैं कुछ भी अनुचित नहीं करता हूँ, मैं अपराधी नहीं हूँ।
10 यद्यपि मैंने कुछ भी अनुचित नहीं किया, तो भी परमेश्वर ने कुछ खोट मुझ में पाया है।
    परमेश्वर सोचता है कि मैं अय्यूब, उसका शत्रु हूँ।
11 इसलिए परमेश्वर मेरे पैरों में काठ डालता है,
    मैं जो कुछ भी करता हूँ वह देखता रहता है।

12 “किन्तु अय्यूब, मैं तुझको निश्चय के साथ बताता हूँ कि तू इस विषय में अनुचित है।
    क्यों? क्योंकि परमेश्वर किसी भी व्यक्ति से अधिक जानता है।
13 अय्यूब, तू क्यों शिकायत करता है और क्यों परमेश्वर से बहस करता है? तू क्यों शिकायत करता है कि
    परमेश्वर तुझे हर उस बात के विषय में जो वह करता है स्पष्ट क्यों नहीं बताता है?
14 किन्तु परमेश्वर निश्चय ही हर उस बात को जिसको वह करता है स्पष्ट कर देता है।
    परमेश्वर अलग अलग रीति से बोलता है किन्तु लोग उसको समझ नहीं पाते हैं।
15 सम्भव है कि परमेश्वर स्वप्न में लोगों के कान में बोलता हो,
    अथवा किसी दिव्यदर्शन में रात को जब वे गहरी नींद में हों।
16 जब परमेश्वर की चेतावनियाँ सुनते है
    तो बहुत डर जाते हैं।
17 परमेश्वर लोगों को बुरी बातों को करने से रोकने को सावधान करता है,
    और उन्हें अहंकारी बनने से रोकने को।
18 परमेश्वर लोगों को मृत्यु के देश में जाने से बचाने के लिये सावधान करता है।
    परमेश्वर मनुष्य को नाश से बचाने के लिये ऐसा करता है।

19 “अथवा कोई व्यक्ति परमेश्वर की वाणी तब सुन सकता है जब वह बिस्तर में पड़ा हों और परमेश्वर के दण्ड से दु:ख भोगता हो।
    परमेश्वर पीड़ा से उस व्यक्ति को सावधान करता है।
    वह व्यक्ति इतनी गहन पीड़ा में होता है, कि उसकी हड्डियाँ दु:खती है।
20 फिर ऐसा व्यक्ति कुछ खा नहीं पाता, उस व्यक्ति को पीड़ा होती है
    इतनी अधिक की उसको सर्वोत्तम भोजन भी नहीं भाता।
21 उसके शरीर का क्षय तब तक होता जाता है जब तक वह कंकाल मात्र नहीं हो जाता,
    और उसकी सब हड्डियाँ दिखने नहीं लग जातीं!
22 ऐसा व्यक्ति मृत्यु के देश के निकट होता है, और उसका जीवन मृत्यु के निकट होता है।
    किन्तु हो सकता है कि कोई स्वर्गदूत हो जो उसके उत्तम चरित्र की साक्षी दे।
23 परमेश्वर के पास हजारों ही स्वर्गदूत हैं।
    फिर वह स्वर्गदूत उस व्यक्ति के अच्छे काम बतायेगा।
24 वह स्वर्गदूत उस व्यक्ति पर दयालु होगा, वह दूत परमेश्वर से कहेगा:
    ‘इस व्यक्ति की मृत्यु के देश से रक्षा हो!
    इसका मूल्य चुकाने को एक राह मुझ को मिल गयी है।’
25 फिर व्यक्ति की देह जवान और सुदृढ़ हो जायेगी।
    वह व्यक्ति वैसा ही हो जायेगा जैसा वह तब था, जब वह जवान था।
26 वह व्यक्ति परमेश्वर की स्तुति करेगा और परमेश्वर उसकी स्तुति का उत्तर देगा।
    वह फिर परमेश्वर को वैसा ही पायेगा जैसे वह उसकी उपासना करता है, और वह अति प्रसन्न होगा।
    क्योंकि परमेश्वर उसे निरपराध घोषित कर के पहले जैसा जीवन कर देगा।
27 फिर वह व्यक्ति लोगों के सामने स्वीकार करेगा। वह कहेगा: ‘मैंने पाप किये थे,
    भले को बुरा मैंने किया था,
    किन्तु मुझे इससे क्या मिला!
28 परमेश्वर ने मृत्यु के देश में गिरने से मेरी आत्मा को बचाया।
    मैं और अधिक जीऊँगा और फिर से जीवन का रस लूँगा।’

29 “परमेश्वर व्यक्ति के साथ ऐसा बार—बार करता है,
30 उसको सावधान करने को और उसकी आत्मा को मृत्यु के देश से बचाने को।
    ऐसा व्यक्ति फिर जीवन का रस लेता है।

31 “अय्यूब, ध्यान दे मुझ पर, तू बात मेरी सुन,
    तू चुप रह और मुझे कहने दे।
32 अय्यूब, यदि तेरे पास कुछ कहने को है तो मुझको उसको सुनने दे।
    आगे बढ़ और बता,
    क्योंकि मैं तुझे निर्दोंष देखना चाहता हूँ।
33 अय्यूब, यदि तूझे कुछ नहीं कहना है तो तू मेरी बात सुन।
    चुप रह, मैं तुझको बुद्धिमान बनना सिखाऊँगा।”

34 फिर एलीहू ने बात को जारी रखते हुये कहा:

“अरे ओ विवेकी पुरुषों तुम ध्यान से सुनो जो बातें मैं कहता हूँ।
    अरे ओ चतुर लोगों, मुझ पर ध्यान दो।
कान उन सब को परखता है जिनको वह सुनता है,
    ऐसे ही जीभ जिस खाने को छूती है, उसका स्वाद पता करती है।
सो आओ इस परिस्थिति को परखें और स्वयं निर्णय करें की उचित क्या है।
    हम साथ साथ सीखेंगे की क्या खरा है।
अय्यूब ने कहा: ‘मैं निर्दोष हूँ,
    किन्तु परमेश्वर मेरे लिये निष्पक्ष नहीं है।
मैं अच्छा हूँ लेकिन लोग सोचते हैं कि मैं बुरा हूँ।
    वे सोचते हैं कि मैं एक झूठा हूँ और चाहे मैं निर्दोंष भी होऊँ फिर भी मेरा घाव नहीं भर सकता।’

“अय्यूब के जैसा कोई भी व्यक्ति नहीं है
    जिसका मुख परमेश्वर की निन्दा से भरा रहता है।
अय्यूब बुरे लोगों का साथी है
    और अय्यूब को बुरे लोगों की संगत भाती है।
क्योंकि अय्यूब कहता है
    ‘यदि कोई व्यक्ति परमेश्वर की आज्ञा मानने का जतन करता है तो इससे उस व्यक्ति का कुछ भी भला न होगा।’

10 “अरे ओं लोगों जो समझ सकते हो, तो मेरी बात सुनो,
    परमेश्वर कभी भी बुरा नहीं करता है।
    सर्वशक्तिशाली परमेश्वर कभी भी बुरा नहीं करेगा।
11 परमेश्वर व्यक्ति को उसके किये कर्मो का फल देगा।
    वह लोगों को जो मिलना चाहिये देगा।
12 यह सत्य है परमेश्वर कभी बुरा नहीं करता है।
    सर्वशक्तिशाली परमेश्वर सदा निष्पक्ष रहेगा।
13 परमेश्वर सर्वशक्तिशाली है, धरती का अधिकारी, उसे किसी व्यक्ति ने नहीं बनाया।
    किसी भी व्यक्ति ने उसे इस समूचे जगत का उत्तरदायित्व नहीं दिया।
14 यदि परमेश्वर निश्चय कर लेता कि
    लोगों से आत्मा और प्राण ले ले,
15 तो धरती के सभी व्यक्ति मर जाते,
    फिर सभी लोग मिट्टी बन जाते।

16 “यदि तुम लोग विवेकी हो
    तो तुम उसे सुनोगे जिसे मैं कहता हूँ।
17 कोई ऐसा व्यक्ति जो न्याय से घृणा रखता है शासक नहीं बन सकता।
    अय्यूब, तू क्या सोचता है,
    क्या तू उस उत्तम और सुदृढ़ परमेश्वर को दोषी ठहरा सकता है
18 केवल परमेश्वर ऐसा है जो राजाओं से कहा करता है कि ‘तुम बेकार के हो।’
    परमेश्वर मुखियों से कहा करता है कि ‘तुम दुष्ट हो।’
19 परमेश्वर प्रमुखों से अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक प्रेम नहीं करता,
    और परमेश्वर धनिकों की अपेक्षा गरीबों से अधिक प्रेम नहीं करता है।
    क्योंकि सभी परमेश्वर ने रचा है।
20 सम्भव है रात में कोई व्यक्ति मर जाये, परमेश्वर बहुत शीघ्र ही लोगों को रोगी करता है और वे प्राण त्याग देते हैं।
    परमेश्वर बिना किसी जतन के शक्तिशाली लोगों को उठा ले जाता है,
    और कोई भी व्यक्ति उन लोगों को मदद नहीं दे सकता है।

21 “व्यक्ति जो करता है परमेश्वर उसे देखता है।
    व्यक्ति जो भी चरण उठाता है परमेश्वर उसे जानता है।
22 कोई जगह अंधेरे से भरी हुई नहीं है, और कोई जगह ऐसी नहीं है
    जहाँ इतना अंधेरा हो कि कोई भी दुष्ट व्यक्ति अपने को परमेश्वर से छिपा पाये।
23 किसी व्यक्ति के लिये यह उचित नहीं है कि
    वह परमेश्वर से न्यायालय में मिलने का समय निश्चित करे।
24 परमेश्वर को प्रश्नों के पूछने की आवश्यकता नहीं,
    किन्तु परमेश्वर बलशालियों को नष्ट करेगा
और उनके स्थान पर किसी
    और को बैठायेगा।
25 सो परमेश्वर जानता है कि लोग क्या करते हैं।
    इसलिये परमेश्वर रात में दुष्टों को हरायेगा, और उन्हें नष्ट कर देगा।
26 परमेश्वर बुरे लोगों को उनके बुरे कर्मो के कारण नष्ट कर देगा
    और बुरे व्यक्ति के दण्ड को वह सब को देखने देगा।
27 क्योंकि बुरे व्यक्ति ने परमेश्वर की आज्ञा मानना छोड़ दिया
    और वे बुरे व्यक्ति परवाह नहीं करते हैं उन कामों को करने की जिनको परमेश्वर चाहता है।
28 उन बुरे लोगों ने गरीबों को दु:ख दिया और उनको विवश किया परमेश्वर को सहायता हेतू पुकारने को।
    गरीब सहायता के लिये पुकारता है, तो परमेश्वर उसकी सुनता है।
29 किन्तु यदि परमेश्वर ने गरीब की सहायता न करने का निर्णय लिया तो
    कोई व्यक्ति परमेश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकता है।
यदि परमेश्वर उनसे मुख मोड़ता है तो कोई भी उस को नहीं पा सकता है।
    परमेश्वर जातियों और समूची मानवता पर शासन करता है।
30 तो फिर एक ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर के विरुद्ध है और लोगों को छलता है,
    तो परमेश्वर उसे राजा बनने नहीं दे सकता है।

31 “सम्भव है कि कोई परमेश्वर से कहे कि
    मैं अपराधी हूँ और फिर मैं पाप नहीं करूँगा।
32 हे परमेश्वर, तू मुझे वे बातें सिखा जो मैं नहीं जानता हूँ।
    यदि मैंने कुछ बुरा किया तो फिर, मैं उसको नहीं करूँगा।
33 किन्तु अय्यूब, जब तू बदलने को मना करता है,
    तो क्या परमेश्वर तुझे वैसा प्रतिफल दे,
जैसा प्रतिफल तू चाहता है? यह तेरा निर्णय है यह मेरा नहीं है।
    तू ही बता कि तू क्या सोचता है?
34 कोई भी व्यक्ति जिसमें विवेक है और जो समझता है वह मेरे साथ सहमत होगा।
    कोई भी विवेकी जन जो मेरी सुनता, वह कहेगा,
35 अय्यूब, अबोध व्यक्ति के जैसी बातें करता है,
    जो बाते अय्यूब करता है उनमें कोई तथ्य नहीं।
36 मेरी यह इच्छा है कि अय्यूब को परखने को और भी अधिक कष्ट दिये जाये।
    क्यों? क्योंकि अय्यूब हमें ऐसा उत्तर देता है, जैसा कोई दुष्ट जन उत्तर देता हो।
37 अय्यूब पाप पर पाप किए जाता है और उस पर उसने बगावत की।
    तुम्हारे ही सामने वह परमेश्वर को बहुत बहुत बोल कर कलंकित करता रहता है!”

35 एलीहू कहता चला गया। वह बोला:

“अय्यूब, यह तेरे लिये कहना उचित नहीं की
    ‘मैं अय्यूब, परमेश्वर के विरुद्ध न्याय पर है।’
अय्यूब, तू परमेश्वर से पूछता है कि
    ‘हे परमेश्वर, मेरा पाप तुझे कैसे हानि पहुँचाता है?
    और यदि मैं पाप न करुँ तो कौन सी उत्तम वस्तु मुझको मिल जाती है?’

“अय्यूब, मैं (एलीहू) तुझको और तेरे मित्रों को जो यहाँ तेरे साथ हैं उत्तर देना चाहता हूँ।
अय्यूब! ऊपर देख
    आकाश में दृष्टि उठा कि बादल तुझसे अधिक उँचें हैं।
अय्यूब, यदि तू पाप करें तो परमेश्वर का कुछ नहीं बिगड़ता,
    और यदि तेरे पाप बहुत हो जायें तो उससे परमेश्वर का कुछ नहीं होता।
अय्यूब, यदि तू भला है तो इससे परमेश्वर का भला नहीं होता,
    तुझसे परमेश्वर को कुछ नहीं मिलता।
अय्यूब, तेरे पाप स्वयं तुझ जैसे मनुष्य को हानि पहुँचाते हैं,
    तेरे अच्छे कर्म बस तेरे जैसे मनुष्य का ही भला करते हैं।

“लोगों के साथ जब अन्याय होता है और बुरा व्यवहार किया जाता है,
    तो वे मदद को पुकारते हैं, वे बड़े बड़ों की सहायता पाने को दुहाई देते हैं।
10 किन्तु वे परमेश्वर से सहायता नहीं माँगते।
    वे नही कहते हैं कि, ‘परमेश्वर जिसने हम को रचा है वह कहाँ है? परमेश्वर जो हताश जन को आशा दिया करता है वह कहाँ है?’
11 वे ये नहीं कहा करते कि,
    ‘परमेश्वर जिसने पशु पक्षियों से अधिक बुद्धिमान मनुष्य को बनाया है वह कहाँ है?’

12 “किन्तु बुरे लोग अभिमानी होते है,
    इसलिये यदि वे परमेश्वर की सहायता पाने को दुहाई दें तो उन्हें उत्तर नहीं मिलता है।
13 यह सच है कि परमेश्वर उनकी व्यर्थ की दुहाई को नहीं सुनेगा।
    सर्वशक्तिशाली परमेश्वर उन पर ध्यान नहीं देगा।
14 अय्यूब, इसी तरह परमेश्वर तेरी नहीं सुनेगा,
    जब तू यह कहता है कि वह तुझको दिखाई नहीं देता
और तू उससे मिलने के अवसर की प्रतीक्षा में है,
    और यह प्रमाणित करने की तू निर्दोष है।

15 “अय्यूब, तू सोचता है कि परमेश्वर दुष्टों को दण्ड नहीं देता है
    और परमेश्वर पाप पर ध्यान नहीं देता है।
16 इसलिये अय्यूब निज व्यर्थ बातें करता रहता है।
    अय्यूब ऐसा व्यवहार कर रहा है कि जैसे वह महत्वपूर्ण है।
    किन्तु यह देखना कितना सरल है कि अय्यूब नहीं जानता कि वह क्या कह रहा है।”

36 एलीहू ने बात जारी रखते हुए कहा:

“अय्यूब, मेरे साथ थोड़ी देर और धीरज रख।
    मैं तुझको दिखाऊँगा की परमेश्वर के पक्ष में अभी कहने को और है।
मैं अपने ज्ञान को सबसे बाटूँगा।
    मुझको परमेश्वर ने रचा है।
मैं जो कुछ भी जानता हूँ मैं उसका प्रयोग तुझको यह दिखाने के लिये करूँगा कि परमेश्वर निष्पक्ष है।
अय्यूब, तू यह निश्चय जान कि जो कुछ मैं कहता हूँ, वह सब सत्य है।
    मैं बहुत विवेकी हूँ और मैं तेरे साथ हूँ।

“परमेश्वर शक्तिशाली है
    किन्तु वह लोगों से घृणा नहीं करता है।
परमेश्वर सामर्थी है
    और विवेकपूर्ण है।
परमेश्वर दुष्ट लोगों को जीने नहीं देगा
    और परमेश्वर सदा दीन लोगों के साथ खरा व्यवहार करता है।
वे लोग जो उचित व्यवहार करते हैं, परमेश्वर उनका ध्यान रखता है।
    वह राजाओं के साथ उन्हें सिंहासन देता है और वे सदा आदर पाते हैं।
किन्तु यदि लोग दण्ड पाते हों और बेड़ियों में जकड़े हों।
    यदि वे पीड़ा भुगत रहे हों और संकट में हो।
तो परमेश्वर उनको बतायेगा कि उन्होंने कौन सा बुरा काम किया है।
    परमेश्वर उनको बतायेगा कि उन्होंने पाप किये है और वे अहंकारी रहे थे।
10 परमेश्वर उनको उसकी चेतावनी सुनने को विवश करेगा।
    वह उन्हें पाप करने को रोकने का आदेश देगा।
11 यदि वे लोग परमेश्वर की सुनेंगे
    और उसका अनुसरण करेंगे तो परमेश्वर उनको सफल बनायेगा।
12 किन्तु यदि वे लोग परमेश्वर की आज्ञा नकारेंगे तो वे मृत्यु के जगत में चले जायेंगे,
    वे अपने अज्ञान के कारण मर जायेंगे।

13 “ऐसे लोग जिनको परवाह परमेश्वर की वे सदा कड़वाहट से भरे रहे है।
    यहाँ तक कि जब परमेश्वर उनको दण्ड देता हैं, वे परमेश्वर से सहारा पाने को विनती नहीं करते।
14 ऐसे लोग जब जवान होंगे तभी मर जायेंगे।
    वे अभी भ्रष्ट लोगों के साथ शर्म से मरेंगे।
15 किन्तु परमेश्वर दु:ख पाते लोगों को विपत्तियों से बचायेगा।
    परमेश्वर लोगों को जगाने के लिए विपदाएं भेजता है ताकि लोग उसकी सुने।

16 “अय्यूब, परमेश्वर तुझको तेरी विपत्तियों से दूर करके तुझे सहारा देना चाहता है।
    परमेश्वर तुझे एक विस्तृत सुरक्षित स्थान देना चाहता है
    और तेरी मेज पर भरपूर खाना रखना चाहता है।
17 किन्तु अब अय्यूब, तुझे वैसा ही दण्ड मिल रहा है, जैसा दण्ड मिला करता है दुष्टों को, तुझको परमेश्वर का निर्णय और खरा न्याय जकड़े हुए है।
18 अय्यूब, तू अपनी नकेल धन दौलत के हाथ में न दे कि वह तुझसे बुरा काम करवाये।
    अधिक धन के लालच से तू मूर्ख मत बन।
19 तू ये जान ले कि अब न तो तेरा समूचा धन तेरी सहायता कर सकता है और न ही शक्तिशाली व्यक्ति तेरी सहायता कर सकते हैं।
20 तू रात के आने की इच्छा मत कर जब लोग रात में छिप जाने का प्रयास करते हैं।
    वे सोचते हैं कि वे परमेश्वर से छिप सकते हैं।
21 अय्यूब, बुरा काम करने से तू सावधान रह।
    तुझ पर विपत्तियाँ भेजी गई हैं ताकि तू पाप को ग्रहण न करे।

22 “देख, परमेश्वर की शक्ति उसे महान बनाती है।
    परमेश्वर सभी से महानतम शिक्षक है।
23 परमेश्वर को क्या करना है, कोई भी व्यक्ति सको बता नहीं सकता।
    कोई भी उससे नहीं कह सकता कि परमेश्वर तूने बुरा किया है।
24 परमेश्वर के कर्मो की प्रशंसा करना तू मत भूल।
    लोगों ने गीत गाकर परमेश्वर के कामों की प्रशंसा की है।
25 परमेश्वर के कर्म को हर कोई व्यक्ति देख सकता है।
    दूर देशों के लोग उन कर्मों को देख सकते हैं।
26 यह सच है कि परमेश्वर महान है। उस की महिमा को हम नहीं समझ सकते हैं।
    परमेश्वर के वर्षो की संख्या को कोई गिन नहीं सकता।

27 “परमेश्वर जल को धरती से उपर उठाता है,
    और उसे वर्षा के रूप में बदल देता है।
28 परमेश्वर बादलों से जल बरसाता है,
    और भरपूर वर्षा लोगों पर गितरी हैं।
29 कोई भी व्यक्ति नहीं समझ सकता कि परमेश्वर कैसे बादलों को बिखराता है,
    और कैसे बिजलियाँ आकाश में कड़कती हैं।
30 देख, परमेश्वर कैसे अपनी बिजली को आकाश में चारों ओर बिखेरता है
    और कैसे सागर के गहरे भाग को ढक देता है।
31 परमेश्वर राष्ट्रों को नियंत्रण में रखने
    और उन्हें भरपूर भोजन देने के लिये इन बादलों का उपयोग करता है।
32 परमेश्वर अपने हाथों से बिजली को पकड़ लेता है और जहाँ वह चाहता हैं,
    वहाँ बिजली को गिरने का आदेश देता है।
33 गर्जन, तूफान के आने की चेतावनी देता है।
    यहाँ तक की पशू भी जानते हैं कि तूफान आ रहा है।

37 “हे अय्यूब, जब इन बातों के विषय में मैं सोचता हूँ,
    मेरा हृदय बहुत जोर से धड़कता है।
हर कोई सुनों, परमेश्वर की वाणी बादल की गर्जन जैसी सुनाई देती है।
    सुनों गरजती हुई ध्वनि को जो परमेश्वर के मुख से आ रही है।
परमेश्वर अपनी बिजली को सारे आकाश से होकर चमकने को भेजता है।
    वह सारी धरती के ऊपर चमका करती है।
बिजली के कौंधने के बाद परमेश्वर की गर्जन भरी वाणी सुनी जा सकती है।
    परमेश्वर अपनी अद्भुत वाणी के साथ गरजता है।
जब बिजली कौंधती है तब परमेश्वर की वाणी गरजती है।
परमेश्वर की गरजती हुई वाणी अद्भुत है।
    वह ऐसे बड़े कर्म करता है, जिन्हें हम समझ नहीं पाते हैं।
परमेश्वर हिम से कहता है,
    ‘तुम धरती पर गिरो’
और परमेश्वर वर्षा से कहता है,
    ‘तुम धरती पर जोर से बरसो।’
परमेश्वर ऐसा इसलिये करता है कि सभी व्यक्ति जिनको उसने बनाया है
    जान जाये कि वह क्या कर सकता है। वह उसका प्रमाण है।
पशु अपने खोहों में भाग जाते हैं, और वहाँ ठहरे रहते हैं।
दक्षिण से तूफान आते हैं,
    और उत्तर से सर्दी आया करती है।
10 परमेश्वर का श्वास बर्फ को रचता है,
    और सागरों को जमा देता है।
11 परमेश्वर बादलों को जल से भरा करता है,
    और बिजली को बादल के द्वारा बिखेरता है।
12 परमेश्वर बादलों को आने देता है कि वह उड़ कर सब कहीं धरती के ऊपर छा जाये और फिर बादल वहीं करते हैं जिसे करने का आदेश परमेश्वर ने उन्हें दिया है।
13 परमेश्वर बाढ़ लाकर लोगों को दण्ड देने अथवा धरती को जल देकर अपना प्रेम दर्शाने के लिये बादलों को भेजता है।

14 “अय्यूब, तू क्षण भर के लिये रुक और सुन।
    रुक जा और सोच उन अद्भुत कार्यो के बारे में जिन्हें परमेश्वर किया करता हैं।
15 अय्यूब, क्या तू जानता है कि परमेश्वर बादलों पर कैसे काबू रखता है क्या तू जानता है कि परमेश्वर अपनी बिजली को क्यों चमकाता है
16 क्या तू यह जानता है कि आकाश में बादल कैसे लटके रहते हैं।
    ये एक उदाहरण मात्र हैं। परमेश्वर का ज्ञान सम्पूर्ण है और ये बादल परमेश्वर की अद्भुत कृति हैं।
17 किन्तु अय्यूब, तुम ये बातें नहीं जानते।
    तुम बस इतना जानते है कि तुमको पसीना आता है और तेरे वस्त्र तुझ से चिपके रहते हैं, और सब कुछ शान्त व स्थिर रहता है, जब दक्षिण से गर्म हवा आती है।
18 अय्यूब, क्या तू परमेश्वर की मदद आकाश को फैलाने में
    और उसे झलकाये गये दर्पण की तरह चमकाने में कर सकता है?

19 “अय्यूब, हमें बता कि हम परमेश्वर से क्या कहें।
    हम उससे कुछ भी कहने को सोच नहीं पाते क्योंकि हम पर्याप्त कुछ भी नहीं जानते।
20 क्या परमेश्वर से यह कह दिया जाये कि मैं उस के विरोध में बोलना चाहता हूँ।
    यह वैसे ही होगा जैसे अपना विनाश माँगना।
21 देख, कोई भी व्यक्ति चमकते हुए सूर्य को नहीं देख सकता।
    जब हवा बादलों को उड़ा देती है उसके बाद वह बहुत उजला और चमचमाता हुआ होता है।
22 और परमेश्वर भी उसके समान है।
    परमेश्वर की सुनहरी महिमा चमकती है।
परमेश्वर अद्भुत महिमा के साथ उत्तर से आता है।
23 सर्वशक्तिमान परमेश्वर सचमुच महान है,
    हम परमेश्वर को नहीं जान सकते परमेश्वर सदा ही लोगों के साथ न्याय और निष्पक्षता के साथ व्यवहार करता हैं।
24 इसलिए लोग परमेश्वर का आदर करते हैं,
    किन्तु परमेश्वर उन अभिमानी लोगों को आदर नहीं देता है जो स्वयं को बुद्धिमान समझते हैं।”

38 फिर यहोवा ने तूफान में से अय्यूब को उत्तर दिया। परमेश्वर ने कहा:

“यह कौन व्यक्ति है
    जो मूर्खतापूर्ण बातें कर रहा है?”
अय्यूब, तुम पुरुष की भाँति सुदृढ़ बनों।
    जो प्रश्न मैं पूछूँ उसका उत्तर देने को तैयार हो जाओ।

अय्यूब, बताओ तुम कहाँ थे, जब मैंने पृथ्वी की रचना की थी?
    यदि तू इतना समझदार है तो मुझे उत्तर दे।
अय्यूब, इस संसार का विस्तार किसने निश्चित किया था?
    किसने संसार को नापने के फीते से नापा?
इस पृथ्वी की नींव किस पर रखी गई है?
    किसने पृथ्वी की नींव के रूप में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पत्थर को रखा है?
जब ऐसा किया था तब भोर के तारों ने मिलकर गया
    और स्वर्गदूत ने प्रसन्न होकर जयजयकार किया।

“अय्यूब, जब सागर धरती के गर्भ से फूट पड़ा था,
    तो किसने उसे रोकने के लिये द्वार को बन्द किया था।
उस समय मैंने बादलों से समुद्र को ढक दिया
    और अन्धकार में सागर को लपेट दिया था (जैसे बालक को चादर में लपेटा जाता है।)
10 सागर की सीमाऐं मैंने निश्चित की थीं
    और उसे ताले लगे द्वारों के पीछे रख दिया था।
11 मैंने सागर से कहा, ‘तू यहाँ तक आ सकता है किन्तु और अधिक आगे नहीं।
    तेरी अभिमानी लहरें यहाँ तक रुक जायेंगी।’

12 “अय्यूब, क्या तूने कभी अपनी जीवन में भोर को आज्ञा दी है
    उग आने और दिन को आरम्भ करने की?
13 अय्यूब, क्या तूने कभी प्रात: के प्रकाश को धरती पर छा जाने को कहा है
    और क्या कभी उससे दुष्टों के छिपने के स्थान को छोड़ने के लिये विवश करने को कहा है
14 प्रात: का प्रकाश पहाड़ों
    व घाटियों को देखने लायक बना देता है।
जब दिन का प्रकाश धरती पर आता है
    तो उन वस्तुओं के रूप वस्त्र की सलवटों की तरह उभर कर आते हैं।
वे स्थान रूप को नम मिट्टी की तरह
    जो दबोई गई मुहर की ग्रहण करते हैं।
15 दुष्ट लोगों को दिन का प्रकाश अच्छा नहीं लगता
    क्योंकि जब वह चमचमाता है, तब वह उनको बुरे काम करने से रोकता है।

16 “अय्यूब, बता क्या तू कभी सागर के गहरे तल में गया है?
    जहाँ से सागर शुरु होता है क्या तू कभी सागर के तल पर चला है?
17 अय्यूब, क्या तूने कभी उस फाटकों को देखा है, जो मृत्यु लोक को ले जाते हैं?
    क्या तूने कभी उस फाटकों को देखा जो उस मृत्यु के अन्धेरे स्थान को ले जाते हैं?
18 अय्यूब, तू जानता है कि यह धरती कितनी बड़ी है?
    यदि तू ये सब कुछ जानता है, तो तू मुझकों बता दे।

19 “अय्यूब, प्रकाश कहाँ से आता है?
    और अन्धकार कहाँ से आता है?
20 अय्यूब, क्या तू प्रकाश और अन्धकार को ऐसी जगह ले जा सकता है जहाँ से वे आये है? जहाँ वे रहते हैं।
    वहाँ पर जाने का मार्ग क्या तू जानता है?
21 अय्यूब, मुझे निश्चय है कि तुझे सारी बातें मालूम हैं? क्योंकि तू बहुत ही बूढ़ा और बुद्धिमान है।
    जब वस्तुऐं रची गई थी तब तू वहाँ था।

22 “अय्यूब, क्या तू कभी उन कोठियारों में गया हैं?
    जहाँ मैं हिम और ओलों को रखा करता हूँ?
23 मैं हिम और ओलों को विपदा के काल
    और युद्ध लड़ाई के समय के लिये बचाये रखता हूँ।
24 अय्यूब, क्या तू कभी ऐसी जगह गया है, जहाँ से सूरज उगता है
    और जहाँ से पुरवाई सारी धरती पर छा जाने के लिये आती है?
25 अय्यूब, भारी वर्षा के लिये आकाश में किसने नहर खोदी है,
    और किसने भीषण तूफान का मार्ग बनाया है?
26 अय्यूब, किसने वहाँ भी जल बरसाया, जहाँ कोई भी नहीं रहता है?
27 वह वर्षा उस खाली भूमि के बहुतायत से जल देता है
    और घास उगनी शुरु हो जाती है।
28 अय्यूब, क्या वर्षा का कोई पिता है?
    ओस की बूँदे कहाँ से आती हैं?
29 अय्यूब, हिम की माता कौन है?
    आकाश से पाले को कौन उत्पन्न करता है?
30 पानी जमकर चट्टान सा कठोर बन जाता है,
    और सागर की ऊपरी सतह जम जाया करती है।

31 “अय्यूब, सप्तर्षि तारों को क्या तू बाँध सकता है?
    क्या तू मृगशिरा का बन्धन खोल सकता है?
32 अय्यूब, क्या तू तारा समूहों को उचित समय पर उगा सकता है,
    अथवा क्या तू भालू तारा समूह की उसके बच्चों के साथ अगुवाई कर सकता है?
33 अय्यूब क्या तू उन नियमों को जानता है, जो नभ का शासन करते हैं?
    क्या तू उन नियमों को धरती पर लागू कर सकता है?

34 “अय्यूब, क्या तू पुकार कर मेघों को आदेश दे सकता है,
    कि वे तुझको भारी वर्षा के साथ घेर ले।
35 अय्यूब बता, क्या तू बिजली को
    जहाँ चाहता वहाँ भेज सकता है?
    और क्या तेरे निकट आकर बिजली कहेगी, “अय्यूब, हम यहाँ है बता तू क्या चाहता है?”

36 “मनुष्य के मन में विवेक को कौन रखता है,
    और बुद्धि को कौन समझदारी दिया करता है?
37 अय्यूब, कौन इतना बलवान है जो बादलों को गिन ले
    और उनको वर्षा बरसाने से रोक दे?
38 वर्षा धूल को कीचड़ बना देती है
    और मिट्टी के लौंदे आपस में चिपक जाते हैं।

39 “अय्यूब, क्या तू सिंहनी का भोजन पा सकता है?
    क्या तू भूखे युवा सिंह का पेट भर सकता है?
40 वे अपनी खोहों में पड़े रहते हैं
    अथवा झाड़ियों में छिप कर अपने शिकार पर हमला करने के लिये बैठते हैं।
41 अय्यूब, कौवे के बच्चे परमेश्वर की दुहाई देते हैं,
    और भोजन को पाये बिना वे इधर—उधर घूमतें रहते हैं, तब उन्हें भोजन कौन देता है?

39 “अय्यूब, क्या तू जानता है कि पहाड़ी बकरी कब ब्याती हैं?
    क्या तूने कभी देखा जब हिरणी ब्याती है?
अय्यूब, क्या तू जानता है पहाड़ी बकरियाँ और माता हरिणियाँ कितने महीने अपने बच्चे को गर्भ में रखती हैं?
    क्या तूझे पता है कि उनका ब्याने का उचित समय क्या है?
वे लेट जाती हैं और बच्चों को जन्म देती है,
    तब उनकी पीड़ा समाप्त हो जाती है।
पहाड़ी बकरियों और हरिणी माँ के बच्चे खेतों में हृष्ट—पुष्ट हो जाते हैं।
    फिर वे अपनी माँ को छोड़ देते हैं, और फिर लौट कर वापस नहीं आते।

“अय्यूब, जंगली गधों को कौन आजाद छोड़ देता है?
    किसने उसके रस्से खोले और उनको बन्धन मुक्त किया?
यह मैं (यहोवा) हूँ जिसने बनैले गधे को घर के रूप में मरुभूमि दिया।
    मैंने उनको रहने के लिये रेही धरती दी।
बनैला गधा शोर भरे नगरों के पास नहीं जाता है
    और कोई भी व्यक्ति उसे काम करवाने के लिये नहीं साधता है।
बनैले गधे पहाड़ों में घूमते हैं
    और वे वहीं घास चरा करते हैं।
    वे वहीं पर हरी घास चरने को ढूँढते रहते हैं।

“अय्यूब, बता, क्या कोई जंगली सांड़ तेरी सेवा के लिये राजी होगा?
    क्या वह तेरे खलिहान में रात को रुकेगा?
10 अय्यूब, क्या तू जंगली सांड़ को रस्से से बाँध कर
    अपना खेत जुता सकता है? क्या घाटी में तेरे लिये वह पटेला करेगा?
11 अय्यूब, क्या तू किसी जंगली सांड़ के भरोसे रह सकता है?
    क्या तू उसकी शक्ति से अपनी सेवा लेने की अपेक्षा रखता है?
12 क्या तू उसके भरोसे है कि वह तेरा अनाज इकट्ठा
    तेरे और उसे तेरे खलिहान में ले जाये?

13 “शुतुरमुर्ग जब प्रसन्न होता है वह अपने पंख फड़फड़ाता है किन्तु शुतुरमुर्ग उड़ नहीं सकता।
    उस के पैर और पंख सारस के जैसे नहीं होते।
14 शुतुरमुर्ग धरती पर अण्डे देती है,
    और वे रेत में सेये जाते हैं।
15 किन्तु शुतुरमुर्ग भूल जाता है कि कोई उसके अण्डों पर से चल कर उन्हें कुचल सकता है,
    अथवा कोई बनैला पशु उनको तोड़ सकता है।
16 शुतुरमुर्ग अपने ही बच्चों पर निर्दयता दिखाता है
    जैसे वे उसके बच्चे नहीं है।
    यदि उसके बच्चे मर भी जाये तो भी उसको उसकी चिन्ता नहीं है।
17 ऐसा क्यों? क्योंकि मैंने (परमेश्वर) उस शुतुरमुर्ग को विवेक नहीं दिया था।
    शुतुरमुर्ग मूर्ख होता है, मैंने ही उसे ऐसा बनाया है।
18 किन्तु जब शुतुरमुर्ग दौड़ने को उठती है तब वह घोड़े और उसके सवार पर हँसती है,
    क्योंकि वह घोड़े से अधिक तेज भाग सकती है।

19 “अय्यूब, बता क्या तूने घोड़े को बल दिया
    और क्या तूने ही घोड़े की गर्दन पर अयाल जमाया है?
20 अय्यूब, बता जैसे टिड्डी कूद जाती है क्या तूने वैसा घोड़े को कुदाया है?
    घोड़ा घोर स्वर में हिनहिनाता है और लोग डर जाते हैं।
21 घोड़ा प्रसन्न है कि वह बहुत बलशाली है
    और अपने खुर से वह धरती को खोदा करता है। युद्ध में जाता हुआ घोड़ा तेज दौड़ता है।
22 घोड़ा डर की हँसी उड़ाता है क्योंकि वह कभी नहीं डरता।
    घोड़ा कभी भी युद्ध से मुख नहीं मोड़ता है।
23 घोड़े की बगल में तरकस थिरका करते हैं।
    उसके सवार के भाले और हथियार धूप में चमचमाया करते हैं।
24 घोड़ा बहुत उत्तेजित है, मैदान पर वह तीव्र गति से दौड़ता है।
    घोड़ा जब बिगुल की आवाज सुनता है तब वह शान्त खड़ा नहीं रह सकता।
25 जब बिगुल की ध्वनि होती है घोड़ा कहा करता है “अहा!”
    वह बहुत ही दूर से युद्ध को सूँघ लेता हैं।
    वह सेना के नायकों के घोष भरे आदेश और युद्ध के अन्य सभी शब्द सुन लेता है।

26 “अय्यूब, क्या तूने बाज को सिखाया अपने पंखो को फैलाना और दक्षिण की ओर उड़ जाना?
27 अय्यूब, क्या तू उकाब को उड़ने की
    और ऊँचे पहाड़ों में अपना घोंसला बनाने की आज्ञा देता है?
28 उकाब चट्टान पर रहा करता है।
    उसका किला चट्टान हुआ करती है।
29 उकाब किले से अपने शिकार पर दृष्टि रखता है।
    वह बहुत दूर से अपने शिकार को देख लेता है।
30 उकाब के बच्चे लहू चाटा करते हैं
    और वे मरी हुई लाशों के पास इकट्ठे होते हैं।”

40 यहोवा ने अय्यूब से कहा:

“अय्यूब तूने सर्वशक्तिमान परमेश्वर से तर्क किया।
    तूने बुरे काम करने का मुझे दोषी ठहराया।
    अब तू मुझको उत्तर दे।”

इस पर अय्यूब ने उत्तर देते हुए परमेश्वर से कहा:

“मैं तो कुछ कहने के लिये बहुत ही तुच्छ हूँ।
    मैं तुझसे क्या कह सकता हूँ?
मैं तुझे कोई उत्तर नहीं दे सकता।
    मैं अपना हाथ अपने मुख पर रख लूँगा।
मैंने एक बार कहा किन्तु अब मैं उत्तर नहीं दूँगा।
    फिर मैंने दोबारा कहा किन्तु अब और कुछ नहीं बोलूँगा।”

इसके बाद यहोवा ने आँधी में बोलते हुए अय्यूब से कहा:

अय्यूब, तू पुरुष की तरह खड़ा हो,
    मैं तुझ से कुछ प्रश्न पूछूँगा और तू उन प्रश्नों का उत्तर मुझे देगा।

अय्यूब क्या तू सोचता है कि मैं न्यायपूर्ण नहीं हूँ?
    क्या तू मुझे बुरा काम करने का दोषी मानता है ताकि तू यह दिखा सके कि तू उचित है?
अय्यूब, बता क्या मेरे शस्त्र इतने शक्तिशाली हैं जितने कि मेरे शस्त्र हैं?
    क्या तू अपनी वाणी को उतना ऊँचा गरजा सकता है जितनी मेरी वाणी है?
10 यदि तू वैसा कर सकता है तो तू स्वयं को आदर और महिमा दे
    तथा महिमा और उज्वलता को उसी प्रकार धारण कर जैसे कोई वस्त्र धारण करता है।
11 अय्यूब, यदि तू मेरे समान है, तो अभिमानी लोगों से घृणा कर।
    अय्यूब, तू उन अहंकारी लोगों पर अपना क्रोध बरसा और उन्हें तू विनम्र बना दे।
12 हाँ, अय्यूब उन अहंकारी लोगों को देख और तू उन्हें विनम्र बना दे।
    उन दुष्टों को तू कुचल दे जहाँ भी वे खड़े हों।
13 तू सभी अभिमानियों को मिट्टी में गाड़ दे
    और उनकी देहों पर कफन लपेट कर तू उनको उनकी कब्रों में रख दे।
14 अय्यूब, यदि तू इन सब बातों को कर सकता है
    तो मैं यह तेरे सामने स्वीकार करूँगा कि तू स्वयं को बचा सकता है।

15 “अय्यूब, देख तू, उस जलगज को
    मैंने (परमेश्वर) ने बनाया है और मैंने ही तुझे बनाया है।
    जलगज उसी प्रकार घास खाती है, जैसे गाय घास खाती है।
16 जलगज के शरीर में बहुत शक्ति होती है।
    उसके पेट की माँसपेशियाँ बहुत शक्तिशाली होती हैं।
17 जलगज की पूँछ दृढ़ता से ऐसी रहती है जैसा देवदार का वृक्ष खड़ा रहता है।
    उसके पैर की माँसपेशियाँ बहुत सुदृढ़ होती हैं।
18 जलगज की हड्‌डियाँ काँसे की भाँति सुदृढ़ होती है,
    और पाँव उसके लोहे की छड़ों जैसे।
19 जलगज पहला पशु है जिसे मैंने (परमेश्वर) बनाया है
    किन्तु मैं उस को हरा सकता हूँ।
20 जलगज जो भोजन करता है उसे उसको वे पहाड़ देते हैं
    जहाँ बनैले पशु विचरते हैं।
21 जलगज कमल के पौधे के नीचे पड़ा रहता है
    और कीचड़ में सरकण्ड़ों की आड़ में छिपा रहता है।
22 कमल के पौधे जलगज को अपनी छाया में छिपाते है।
    वह बाँस के पेड़ों के तले रहता हैं, जो नदी के पास उगा करते है।
23 यदि नदी में बाढ़ आ जाये तो भी जल गज भागता नहीं है।
    यदि यरदन नदी भी उसके मुख पर थपेड़े मारे तो भी वह डरता नहीं है।
24 जल गज की आँखों को कोई नहीं फोड़ सकता है
    और उसे कोई भी जाल में नहीं फँसा सकता।

41 “अय्यूब, बता, क्या तू लिब्यातान (सागर के दैत्य) को
    किसी मछली के काँटे से पकड़ सकता है?
अय्यूब, क्या तू लिब्यातान की नाक में नकेल डाल सकता है?
    अथवा उसके जबड़ों में काँटा फँसा सकता है?
अय्यूब, क्या लिब्यातान आजाद होने के लिये तुझसे विनती करेगा
    क्या वह तुझसे मधुर बातें करेगा?
अय्यूब, क्या लिब्यातान तुझसे सन्धि करेगा,
    और सदा तेरी सेवा का तुझे वचन देगा?
अय्यूब, क्या तू लिब्यातान से वैसे ही खेलेगा जैसे तू किसी चिड़ियाँ से खेलता है?
    क्या तू उसे रस्से से बांधेगा जिससे तेरी दासियाँ उससे खेल सकें?
अय्यूब, क्या मछुवारे लिब्यातान को तुझसे खरीदने का प्रयास करेंगे?
    क्या वे उसको काटेंगे और उन्हें व्यापारियों के हाथ बेच सकेंगे?
अय्यूब, क्या तू लिब्यातान की खाल में और माथे पर भाले फेंक सकता है?

“अय्यूब, लिब्यातान पर यदि तू हाथ डाले तो जो भयंकर युद्ध होगा, तू कभी भी भूल नहीं पायेगा,
    और फिर तू उससे कभी युद्ध न करेगा।
और यदि तू सोचता है कि तू लिब्यातान को हरा देगा
    तो इस बात को तू भूल जा।
    क्योंकि इसकी कोई आशा नहीं है।
तू तो बस उसे देखने भर से ही डर जायेगा।
10 कोई भी इतना वीर नहीं है,
    जो लिब्यातान को जगा कर भड़काये।

“तो फिर अय्यूब बता, मेरे विरोध में कौन टिक सकता है?
11 मुझ को (परमेश्वर को) किसी भी व्यक्ति कुछ नहीं देना है।
    सारे आकाश के नीचे जो कुछ भी है, वह सब कुछ मेरा ही है।

12 “अय्यूब, मैं तुझको लिब्यातान के पैरों के विषय में बताऊँगा।
    मैं उसकी शक्ति और उसके रूप की शोभा के बारे में बताऊँगा।
13 कोई भी व्यक्ति उसकी खाल को भेद नहीं सकता।
    उसकी खाल दुहरा कवच के समान हैं।
14 लिब्यातान को कोई भी व्यक्ति मुख खोलने के लिये विवश नहीं कर सकता है।
    उसके जबड़े के दाँत सभी को भयभीत करते हैं।
15 लिब्यातान की पीठ पर ढालों की पंक्तियाँ होती है,
    जो आपस में कड़ी छाप से जुड़े होते हैं।
16 ये ढ़ाले आपस में इतनी सटी होती हैं
    कि हवा तक उनमें प्रवेश नहीं कर पाती है।
17 ये ढाले एक दूसरे से जुड़ी होती हैं।
    वे इतनी मजबूती से एक दूसरे से जुडी हुई है कि कोई भी उनको उखाड़ कर अलग नहीं कर सकता।
18 लिब्यातान जब छींका करता है तो ऐसा लगता है जैसे बिजली सी कौंध गई हो।
    आँखे उसकी ऐसी चमकती है जैसे कोई तीव्र प्रकाश हो।
19 उसके मुख से जलती हुई मशालें निकलती है
    और उससे आग की चिंगारियाँ बिखरती हैं।
20 लिब्यातान के नथुनों से धुआँ ऐसा निकलता है,
    जैसे उबलती हुई हाँडी से भाप निकलता हो।
21 लिब्यातान की फूँक से कोपले सुलग उठते हैं
    और उसके मुख से डर कर दूर भाग जाया करते हैं।
22 लिब्यातान की शक्ति उसके गर्दन में रहती हैं,
    और लोग उससे डर कर दूर भाग जाया करते हैं।
23 उसकी खाल में कही भी कोमल जगह नहीं है।
    वह धातु की तरह कठोर हैं।
24 लिब्यातान का हृदय चट्टान की तरह होता है, उसको भय नहीं है।
    वह चक्की के नीचे के पाट सा सुदृढ़ है।
25 लिब्यातान जागता है, बली लोग डर जाते हैं।
    लिब्यातान जब पूँछ फटकारता है, तो वे लोग भाग जाते हैं।
26 लिब्यातान पर जैसे ही भाले, तीर और तलवार पड़ते है
    वे उछल कर दूर हो जाते है।
27 लोहे की मोटी छड़े वह तिनसे सा
    और काँसे को सड़ी लकड़ी सा तोड़ देता है।
28 बाण लिब्यातान को नहीं भगा पाते हैं,
    उस पर फेंकी गई चट्टाने सूखे तिनके की भाँति हैं।
29 लिब्यातान पर जब मुगदर पड़ता है तो उसे ऐसा लगता है मानों वह कोई तिनका हो।
    जब लोग उस पर भाले फेंकते हैं, तब वह हँसा करता है।
30 लिब्यातान की देह के नीचे की खाल टूटे हुऐ बर्तन के कठोर व पैने टुकड़े सा है।
    वह जब चलता है तो कीचड़ में ऐसे छोड़ता है। मानों खलिहान में पाटा लगाया गया हो।
31 लिब्यातान पानी को यूँ मथता है, मानों कोई हँड़ियाँ उबलती हो।
    वह ऐसे बुलबुले बनाता है मानों पात्र में उबलता हुआ तेल हो।
32 लिब्यातान जब सागर में तैरता है तो अपने पीछे वह सफेद झागों जैसी राह छोड़ता है,
    जैसे कोई श्वेत बालों की विशाल पूँछ हो।
33 लिब्यातान सा कोई और जन्तु धरती पर नहीं है।
    वह ऐसा पशु है जिसे निर्भय बनाया गया।
34 वह अत्याधिक गर्वीले पशुओं तक को घृणा से देखता है।
    सभी जंगली पशुओं का वह राजा हैं।
मैंने (यहोवा) लिब्यातान को बनाया है।”

Hindi Bible: Easy-to-Read Version (ERV-HI)

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