Bible in 90 Days
रोम नगर के यहूदियों से पौलॉस की भेंट
17 तीन दिन बाद उन्होंने यहूदी प्रधानों की एक सभा बुलाई. उनके इकट्ठा होने पर पौलॉस ने उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा, “मेरे प्रिय भाइयो, यद्यपि मैंने स्वजातीय यहूदियों तथा हमारे पूर्वजों की प्रथाओं के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया है फिर भी मुझे येरूशालेम में बन्दी बना कर रोमी सरकार के हाथों में सौंप दिया गया है. 18 मेरी जांच करने के बाद वे मुझे रिहा करने के लिए तैयार थे क्योंकि उन्होंने मुझे प्राणदण्ड का दोषी नहीं पाया. 19 किन्तु जब यहूदियों ने इसका विरोध किया तो मुझे मजबूर होकर कयसर के सामने दोहाई देनी पड़ी—इसलिए नहीं कि मुझे अपने राष्ट्र के विरुद्ध कोई आरोप लगाना था. 20 मैंने आप लोगों से मिलने की आज्ञा इसलिए ली है कि मैं आप से विचार-विमर्श कर सकूँ क्योंकि यह बेड़ी मैंने इस्राएल की आशा की भलाई में धारण की है.”
21 उन्होंने पौलॉस को उत्तर दिया, “हमें यहूदिया प्रदेश से आपके सम्बन्ध में न तो कोई पत्र प्राप्त हुआ है और न ही किसी ने यहाँ आ कर आपके विषय में कोई प्रतिकूल सूचना दी है. 22 हमें इस मत के विषय में आप से ही आपके विचार सुनने की इच्छा थी. हमें मालूम है कि हर जगह इस मत का विरोध हो रहा है.”
रोम नगर के यहूदियों के सामने पौलॉस का भाषण
23 तब इसके लिए एक दिन तय किया गया और निर्धारित समय पर बड़ी संख्या में लोग उनके घर पर आए. सुबह से लेकर शाम तक पौलॉस सच्चाई से परमेश्वर के राज्य के विषय में शिक्षा देते रहे तथा मसीह येशु के विषय में मोशेह की व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं के लेखों से स्पष्ट करके उन्हें दिलासा दिलाते रहे. 24 उनकी बातों को सुनकर उनमें से कुछ तो मान गए किन्तु कुछ अन्यों ने इसका विश्वास नहीं किया. 25 जब वे एक दूसरे से सहमत न हो सके तो वे पौलॉस की इस अन्तिम बात को सुन कर जाने लगे: “भविष्यद्वक्ता यशायाह ने पवित्रात्मा के द्वारा आप लोगों के पूर्वजों पर एक ठीक सच्चाई ही प्रकाशित की थी:
26 “‘इन लोगों से जाकर कहो,
“तुम लोग सुनते तो रहोगे, किन्तु समझोगे नहीं.
तुम लोग देखते भी रहोगे, किन्तु पहचान न सकोगे.”
27 क्योंकि इन लोगों का हृदय जड़ हो चुका है.
अपने कानों से वे कदाचित ही कुछ सुन पाते हैं
और आँखें तो उन्होंने मूंद ही रखी हैं,
कि कहीं वे आँखों से देख न लें
और कानों से सुन न लें
और अपने हृदय से समझ कर लौट आएँ और मैं, परमेश्वर,
उन्हें स्वस्थ और पूर्ण बना दूँ.’
28 “इसलिए यह सही है कि आपको यह मालूम हो जाए कि परमेश्वर का यह उद्धार अब अन्यजातियों के लिए भी मौजूद है. वे भी इसे स्वीकार करेंगे.” 29 उनकी इन बातों के बाद यहूदी वहाँ से आपस में झगड़ते हुए चले गए.
30 पौलॉस वहाँ अपने भाड़े के मकान में पूरे दो साल रहे. वह भेंट करने आए व्यक्तियों को पूरे दिल से स्वीकार करते थे.
31 वह निडरता से, बिना रोक-टोक के, पूरे साफ़-साफ़ शब्दों में परमेश्वर के राज्य का प्रचार करते और प्रभु मसीह येशु के विषय में शिक्षा देते रहे.
ईश्वरीय सुसमाचार का सम्मान
1 यह पत्र पौलॉस की ओर से है, जो मसीह येशु का दास है, जिसका आगमन एक प्रेरित के रूप में हुआ तथा जो परमेश्वर के उस ईश्वरीय सुसमाचार के लिए अलग किया गया है, 2 जिसकी प्रतिज्ञा परमेश्वर ने पहले ही अपने भविष्यद्वक्ताओं के द्वारा पवित्र अभिलेखों में की थी, 3 जो उनके पुत्र के सम्बन्ध में थी, जो शारीरिक दृष्टि से दाविद के वंशज थे, 4 जिन्हें पवित्रता की आत्मा के अनुसार सामर्थ्य से मरे हुओं में से पुनरुत्थान के परिणामस्वरूप परमेश्वर-पुत्र ठहराया गया. 5 उन्हीं के द्वारा हमने कृपा तथा प्रेरिताई प्राप्त की है कि हम उन्हीं के लिए सभी अन्यजातियों में विश्वास करके आज्ञाकारिता प्रभावी करें, 6 जिनमें से तुम भी मसीह येशु के होने के लिए बुलाए गए हो.
आभार व्यक्ति और प्रार्थना
7 यह पत्र रोम नगर में उन सभी के नाम है,
जो परमेश्वर के प्रिय हैं, जिनका बुलावा पवित्र होने के लिए किया गया है. परमेश्वर हमारे पिता तथा प्रभु मसीह येशु की ओर से तुम में अनुग्रह और शान्ति बनी रहे.
8 सबसे पहले, मैं तुम सबके लिए मसीह येशु के द्वारा अपने परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ क्योंकि तुम्हारे विश्वास की कीर्ति पूरे विश्व में फैलती जा रही है. 9 परमेश्वर, जिनके पुत्र के ईश्वरीय सुसमाचार का प्रचार मैं पूरे हृदय से कर रहा हूँ, मेरे गवाह हैं कि मैं तुम्हें अपनी प्रार्थनाओं में कैसे लगातार याद किया करता हूँ 10 और विनती करता हूँ कि यदि सम्भव हो तो परमेश्वर की इच्छा अनुसार मैं तुमसे भेंट करने आऊँ.
11 तुमसे भेंट करने के लिए मेरी बहुत इच्छा इसलिए है कि तुम्हें आत्मिक रूप से मजबूत करने के उद्धेश्य से कोई आत्मिक वरदान प्रदान करूँ 12 कि तुम और मैं आपस में एक-दूसरे के विश्वास द्वारा प्रोत्साहित हो जाएँ. 13 प्रियजन, मैं नहीं चाहता कि तुम इस बात से अनजान रहो कि मैंने अनेक बार तुम्हारे पास आने की योजना बनाई है कि मैं तुम्हारे बीच वैसे ही उत्तम परिणाम देख सकूँ जैसे मैंने बाकी अन्यजातियों में देखे हैं किन्तु अब तक इसमें रुकावट ही पड़ती रही है.
14 मैं यूनानियों तथा बरबरों, बुद्धिमानों तथा निर्बुद्धियों दोनों ही का कर्ज़दार हूँ. 15 इसलिए मैं तुम्हारे बीच भी—तुम, जो रोम नगर में हो—ईश्वरीय सुसमाचार सुनाने के लिए उत्सुक हूँ.
धर्मी घोषित किया जाना
16 ईश्वरीय सुसमाचार मेरे लिए लज्जा का विषय नहीं है. यह उन सभी के उद्धार के लिए परमेश्वर का सामर्थ्य है, जो इसमें विश्वास करते हैं. सबसे पहले यहूदियों के लिए और यूनानियों के लिए भी. 17 क्योंकि इसमें विश्वास से विश्वास के लिए परमेश्वर की धार्मिकता का प्रकाशन होता है, जैसा कि पवित्रशास्त्र का लेख है: वह, जो विश्वास द्वारा धर्मी है, जीवित रहेगा.
अन्यजातियों और यहूदियों पर परमेश्वर का क्रोध
18 स्वर्ग से परमेश्वर का क्रोध उन मनुष्यों की अभक्ति तथा दुराचरण पर प्रकट होता है, जो सच्चाई को अधर्म में दबाए रहते हैं 19 क्योंकि परमेश्वर के विषय में जो कुछ भी जाना जा सकता है, वह ज्ञान मनुष्यों पर प्रकट है—इसे स्वयं परमेश्वर ने उन पर प्रकट किया है. 20 सच यह है कि सृष्टि के प्रारम्भ ही से परमेश्वर के अनदेखे गुण, उनकी अनंत सामर्थ्य तथा उनका परमेश्वरत्व उनकी सृष्टि में स्पष्ट है और दिखाई देता है. इसलिए मनुष्य के पास अपने इस प्रकार के स्वभाव के बचाव में कोई भी तर्क शेष नहीं रह जाता.
21 परमेश्वर का ज्ञान होने पर भी उन्होंने न तो परमेश्वर को परमेश्वर के योग्य सम्मान दिया और न ही उनका आभार माना. इसके विपरीत उनकी विचार शक्ति व्यर्थ हो गई तथा उनके जड़ हृदयों पर अन्धकार छा गया. 22 उनका दावा था कि वे बुद्धिमान हैं किन्तु वे बिलकुल मूर्ख साबित हुए 23 क्योंकि उन्होंने अविनाशी परमेश्वर के प्रताप को बदलकर नाशमान मनुष्य, पक्षियों, पशुओं तथा रेंगते जन्तुओं में कर दिया.
24 इसलिए परमेश्वर ने भी उन्हें उनके हृदय की अभिलाषाओं की मलिनता के लिए छोड़ दिया कि वे आपस में बुरे कामों में अपने शरीर का अनादर करें. 25 ये वे हैं, जिन्होंने परमेश्वर के सच का बदलाव झूठ से किया. ये वे हैं, जिन्होंने सृष्टि की वन्दना-अर्चना की, न कि सृष्टिकर्ता की, जो सदा-सर्वदा वन्दनीय हैं. आमेन.
26 यह देख परमेश्वर ने उन्हें निर्लज्ज कामनाओं को सौंप दिया. फलस्वरूप उनकी स्त्रियों ने प्राकृतिक यौनाचार के स्थान पर अप्राकृतिक यौनाचार अपना लिया. 27 इसी प्रकार स्त्रियों के साथ प्राकृतिक यौनाचार को छोड़कर पुरुष अन्य पुरुष के लिए कामाग्नि में जलने लगे. पुरुष पुरुष के साथ ही निर्लज्ज व्यवहार करने लगे, जिसके फलस्वरूप उन्हें अपने ही शरीर में अपनी अपंगता का दुष्परिणाम प्राप्त हुआ.
28 इसके बाद भी उन्होंने यह उचित न समझा कि परमेश्वर के समग्र ज्ञान को स्वीकार करें, इसलिए परमेश्वर ने उन्हें वह सब करने के लिए, जो अनुचित था, निकम्मे मन के वश में छोड़ दिया. 29 उनमें सब प्रकार की बुराइयां समा गईं: दुष्टता, लोभ, दुष्कृति, जलन, हत्या, झगड़ा, छल, दुर्भाव, कानाफ़ूसी, दूसरों की निन्दा, 30 परमेश्वर से घृणा, धृष्टता, घमण्ड़, डींग मारना, षड़यन्त्र रचना, माता-पिता की आज्ञा टालना, 31 निर्बुद्धि, विश्वासघाती, कठोरता और निर्दयता. 32 यद्यपि वे परमेश्वर के अध्यादेश से परिचित हैं कि इन सब का दोषी व्यक्ति मृत्युदण्ड के योग्य है, वे न केवल स्वयं ऐसा काम करते हैं, परन्तु उन्हें भी पूरा समर्थन देते हैं, जो इनका पालन करते हैं.
यहूदी परमेश्वर के क्रोध से अछूते नहीं
2 उपरोक्त के प्रकाश में तुममें से हरेक आरोपी के पास अपने बचाव के लिए कोई भी तर्क बाकी नहीं रह जाता क्योंकि जिस विषय को लेकर तुम उस अन्य को दोषी घोषित कर रहे हो, उस विषय में तुम स्वयं पर दण्ड की आज्ञा प्रसारित कर रहे हो क्योंकि जिस विषय के लिए तुम उसे दोषी घोषित कर रहे हो, तुम स्वयं वही करते हो. 2 हमें यह मालूम है कि परमेश्वर अवश्य ही उन्हें दण्ड देंगे, जो इन बुरे कामों का पालन करते हैं 3 और जबकि तुम स्वयं इनका पालन करते हो, उन पर उँगली उठा रहे हो, जो इनका पालन करते हैं! क्या तुम यह सोचते हो कि तुम परमेश्वर के दण्ड से बच जाओगे? 4 या इस सच्चाई को पहचाने बिना कि परमेश्वर की कृपा ही तुम्हें पश्चाताप करना सिखाती है, तुमने परमेश्वर के अनुग्रह, धीरज और सहनशीलता रूपी धन को तुच्छ समझा है?
5 तुम अपने हठीले मनवाले तथा पश्चाताप विरोधी हृदय के कारण अपने ही लिए उस क्रोध के दिन पर परमेश्वर के सच्चे न्याय के प्रकाशन के अवसर के लिए क्रोध जमा कर रहे हो. 6 परमेश्वर ही हरेक को उसके कामों के अनुसार प्रतिफल देंगे: 7 जिन्होंने ऐश्वर्य, गौरव और अमरता को पाने के लिए अच्छे काम करते हुए बिना थके मेहनत की है, उन्हें अनंत जीवन 8 और जो स्वार्थी हैं, सच का तिरस्कार तथा कुकाम का पालन करते हैं, उन्हें कोप और क्रोध. 9 हरेक बुरा करने वाले के लिए दर्द और संकट तय किए गए हैं—सबसे पहिले यहूदी के लिए और फिर यूनानी के लिए भी 10 मगर हरेक अच्छे काम करने वाले के लिए महिमा, आदर और शान्ति तय हैं—सबसे पहिले यहूदी के लिए और फिर यूनानी के लिए भी. 11 पक्षपात परमेश्वर में है ही नहीं.
व्यवस्था द्वारा छुटकारा नहीं
12 वे सभी जिन्होंने व्यवस्था को बिना जाने पाप किया है, व्यवस्था को बिना जाने नाश भी होंगे किन्तु जिन्होंने व्यवस्था को जानकर पाप किया है, उनका न्याय भी व्यवस्था के अनुसार ही किया जाएगा. 13 परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी वे नहीं, जो व्यवस्था के सुननेवाले हैं परन्तु धर्मी वे हैं, जो व्यवस्था का पालन करने वाले हैं. 14 व्यवस्था से पूरी तरह अनजान अन्यजाति अपनी मूलप्रवृत्ति के प्रभाव से व्यवस्था का पालन करते पाए जाते हैं. इसलिए व्यवस्था न होने पर भी वे स्वयं अपने लिए व्यवस्था हैं. 15 इसके द्वारा वे यह प्रदर्शित करते हैं कि उनके हृदयों पर व्यवस्था लिखी है. इसकी गवाह है उनकी अन्तरात्मा, जो उन पर दोष लगाने या उनके बचाव के द्वारा स्थिति का अनुमान लगाती है. 16 यह सब उस दिन स्पष्ट हो जाएगा जब परमेश्वर मसीह येशु के द्वारा मेरे माध्यम से प्रस्तुत ईश्वरीय सुसमाचार के अनुसार मनुष्य के गुप्त कामों का न्याय करेंगे.
व्यवस्था और यहूदी
17 किन्तु तुम—यदि तुम यहूदी हो तथा व्यवस्था का पालन करते हो; परमेश्वर से अपने सम्बन्ध का तुम्हें गर्व है; 18 तुम्हें परमेश्वर की इच्छा मालूम है, तुम अच्छी-अच्छी वस्तुओं के समर्थक हो क्योंकि तुम्हें इनके विषय में व्यवस्था से सिखाया गया है; 19 तुम्हें यह निश्चय है कि तुम दृष्टिहीनों के लिए सही पथप्रदर्शक हो; जो अन्धकार में हैं उनके लिए ज्योति हो; 20 मन्दबुद्धियों के गुरु तथा बालकों के शिक्षक हो क्योंकि तुमने व्यवस्था में उस ज्ञान तथा उस सच्चाई के नमूने को पहचान लिया है; 21 इसलिए तुम, जो अन्यों को शिक्षा देते हो, स्वयं को शिक्षा क्यों नहीं देते? तुम, जो यह उपदेश देते हो, “चोरी मत करो,” क्या तुम स्वयं ही चोरी नहीं करते! 22 तुम, जो यह सिखाते हो, “व्यभिचार अनुचित है,” क्या तुम स्वयं ही व्यभिचार में लीन नहीं हो! तुम, जो मूर्तियों से घृणा का दिखावा करते हो, स्वयं ही उनके मन्दिर नहीं लूटते! 23 तुम, जो व्यवस्था पर गर्व करते हो, क्या तुम स्वयं ही व्यवस्था भंग कर परमेश्वर की ही प्रतिष्ठा भंग नहीं करते! 24 जैसा कि पवित्रशास्त्र का ही लेख है: तुम अन्यजातियों के बीच परमेश्वर की निंदा के कारण हो.
ख़तना द्वारा छुड़ौती नहीं
25 इसमें सन्देह नहीं कि ख़तना का अपना महत्व है—उसी स्थिति में, जब तुम व्यवस्था का पालन करते हो; किन्तु यदि तुमने व्यवस्था भंग कर ही दी तो तुम्हारा ख़तना ख़तनारहित समान हो गया. 26 इसलिए यदि कोई बिना ख़तना का व्यक्ति व्यवस्था के आदेशों का पालन करता है, तब क्या उसका बिना ख़तना के होना ख़तना होने जैसा न हुआ? 27 तब शारीरिक रूप से बिना ख़तना के वह व्यक्ति, जो शारीरिक रूप से व्यवस्था का पालन करने वाला है, क्या तुम पर उँगली न उठाएगा—तुम, जो स्वयं पर व्यवस्था की छाप लगाए हुए तथा ख़तना किए हुए भी हो और फिर भी व्यवस्था भंग करते हो?
28 वास्तविक यहूदी वह नहीं, जिसका मात्र बाहरी स्वरूप यहूदियों-सा है और न वास्तविक ख़तना वह है, जो बाहरी रूप से मात्र शरीर में ही किया गया है; 29 यहूदी वह है, जो अपने मन में यहूदी है तथा ख़तना वह है, जो पवित्रात्मा के द्वारा हृदय का किया जाता है, न कि वह, जो मात्र व्यवस्था के अन्तर्गत किया जाता है. इस प्रकार के व्यक्ति की प्रशंसा मनुष्यों द्वारा नहीं, परन्तु परमेश्वर द्वारा की जाती है.
परमेश्वर की प्रतिज्ञाएँ तथा यहूदी
3 तब भला यहूदी होने का क्या लाभ या ख़तना से क्या उपलब्धि? 2 हर एक नज़रिए से बहुत कुछ! सबसे पहले तो यह कि यहूदियों को ही परमेश्वर के ईश्वरीय वचन सौंपे गए. 3 इससे क्या अन्तर पड़ता है कि कुछ ने विश्वास नहीं किया. क्या उनका अविश्वास परमेश्वर की विश्वासयोग्यता को समाप्त कर देता है? नहीं! बिलकुल नहीं! 4 संसार का हरेक व्यक्ति झूठा साबित हो सकता है किन्तु परमेश्वर ही हैं, जो अपने वचन का पालन करते रहेंगे, जैसा कि पवित्रशास्त्र का लेख है:
आप अपनी बातों में धर्मी साबित हों
तथा न्याय होने पर जय पाएँ.
5 किन्तु यदि हमारे अधर्म परमेश्वर की धार्मिकता दिखाते हैं तो हम क्या कहें? क्या परमेश्वर के क्रोधित होने पर उन्हें अधर्मी कहा जाएगा?—मैं यह सब मानवीय नज़रिए से कह रहा हूँ— 6 नहीं! बिलकुल नहीं! यह हो ही नहीं सकता! अन्यथा परमेश्वर संसार का न्याय कैसे करेंगे? 7 यदि मेरे झूठ के कारण परमेश्वर का सच उनकी महिमा के लिए अधिक करके प्रकट होता है तो अब भी मुझे पापी घोषित क्यों किया जा रहा है? 8 तब यह कहने में क्या नुकसान है—जैसा कि हमारे लिए निन्दा से भरे शब्दों में कहा ही जा रहा है तथा जैसा कुछ का यह दावा भी है कि यह हमारा ही कहना है: चलो कुकाम करें कि इससे ही कुछ भला हो जाए? न्याय के अनुसार उन पर घोषित दण्ड सही है.
हर एक पापी है
9 तब? क्या हम उनसे उत्तम हैं? बिलकुल नहीं! हम पहले ही यह स्पष्ट कर चुके हैं कि यहूदी तथा यूनानी सभी पाप के अधीन हैं. 10 पवित्रशास्त्र का लेख भी यही है:
कोई भी धर्मी नहीं—एक भी नहीं.
कोई भी नहीं, जिसमें सोचने की शक्ति है;
11 कोई भी नहीं, जो परमेश्वर को खोजता है!
12 सभी परमेश्वर से दूर हो गए.
वे सब निकम्मे हो गए.
कोई भी भलाई करने वाला नहीं—एक भी नहीं.
13 उनके गले खुली क़ब्र
तथा उनकी जीभ छल-कपट का साधन हैं.
उनके होठों से घातक साँपों का विष छलकता है.
14 उनके मुँह शाप तथा कड़वाहट से भरे हुए हैं.
15 उनके पांव लहू बहाने के लिए फुर्तीले हैं;
16 विनाश तथा क्लेश उनके मार्ग में बिछे हैं,
17 शान्ति के मार्ग से वे हमेशा अनजान हैं.
18 उनमें परमेश्वर का भय है ही नहीं.
19 अब हमें यह तो मालूम हो गया कि व्यवस्था के निर्देश उन्हीं से कहते हैं, जो व्यवस्था के अधीन हैं कि हर एक मुँह बन्द हो जाए और पूरा विश्व परमेश्वर के सामने हिसाब देने वाला हो जाए 20 क्योंकि सिर्फ व्यवस्था के पालन करने के द्वारा कोई भी व्यक्ति परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी घोषित नहीं होगा. व्यवस्था के द्वारा सिर्फ यह अहसास होता है कि पाप क्या है.
परमेश्वर की न्यायसंगतता [a]का प्रकाशन
21 किन्तु अब स्थिति यह है कि व्यवस्था के बिना ही परमेश्वर की धार्मिकता प्रकट हो गई है, जिसका वर्णन पवित्रशास्त्र तथा भविष्यद्वक्ता करते रहे थे 22 अर्थात् मसीह येशु में विश्वास द्वारा उपलब्ध परमेश्वर की धार्मिकता, जो उन सब के लिए है, जो मसीह येशु में विश्वास करते हैं, क्योंकि कोई भेद नहीं 23 क्योंकि पाप सभी ने किया है और सभी परमेश्वर की महिमा से दूर हो गए है 24 किन्तु परमेश्वर के अनुग्रह से पाप के छुटकारे द्वारा, हरेक उस सेंत-मेंत छुटकारे में धर्मी घोषित किया जाता है, जो मसीह येशु में है. 25 मसीह येशु, जिन्हें परमेश्वर ने उनके लहू में विश्वास द्वारा प्रायश्चित-बलि के रूप में सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत किया. इसमें उनका विश्वास था अपनी ही धार्मिकता का सबूत देना क्योंकि वह अपनी सहनशीलता के कारण पूर्व युगों में किए गए पाप-दण्ड को इसलिए टालते रहे 26 कि वह इस वर्तमान युग में अपनी धार्मिकता प्रकट करें कि वह स्वयं को तथा उसे धर्मी घोषित करें, जिसका विश्वास मसीह येशु में है.
विश्वास का परिणाम
27 तब हमारे घमण्ड़ का क्या हुआ? उसका बहिष्कार कर दिया गया है. किस सिद्धान्त के द्वारा? कामों के सिद्धान्त के द्वारा? नहीं! यह हुआ है विश्वास की व्यवस्था द्वारा. 28 हमारी मान्यता यह है: मनुष्य व्यवस्था का सिर्फ पालन करने के द्वारा नहीं परन्तु अपने विश्वास द्वारा धर्मी घोषित किया जाता है. 29 क्या कही परमेश्वर सिर्फ यहूदियों ही के परमेश्वर हैं? क्या वह अन्यजातियों के परमेश्वर नहीं? निःसन्देह, वह उनके भी परमेश्वर हैं; 30 क्योंकि परमेश्वर एक हैं. वही ख़तना किये हुओं तथा ख़तना रहित दोनों को उनके विश्वास के द्वारा धर्मी घोषित करेंगे. 31 तो क्या हमारा विश्वास व्यवस्था को व्यर्थ ठहराता है? नहीं! बिलकुल नहीं! इसके विपरीत अपने विश्वास के द्वारा हम व्यवस्था को स्थिर करते हैं.
विश्वास—अब्राहाम की धार्मिकता
4 हम अपने कुलपिता अब्राहाम के विषय में क्या कहें—क्या था इस विषय में उनका अनुभव? 2 यदि कामों के द्वारा अब्राहाम को धार्मिकता प्राप्त हुई तो वह इसका घमण्ड़ अवश्य कर सकते थे, किन्तु परमेश्वर के सामने नहीं. 3 पवित्रशास्त्र का लेख क्या है? अब्राहाम ने परमेश्वर में विश्वास किया और इसी को उनकी धार्मिकता के रूप में मान्यता दी गई.
4 मज़दूर की मज़दूरी उसका उपहार नहीं, अधिकार है. 5 वह व्यक्ति, जो व्यवस्था का पालन तो नहीं करता किन्तु परमेश्वर में, जो अधर्मी को निर्दोष घोषित करते हैं, विश्वास करता है, इसी विश्वास के द्वारा धर्मी व्यक्ति के रूप में मान्यता प्राप्त करता है. 6 जैसे दाविद ने उस व्यक्ति की धन्यता का वर्णन किया है, जिसे परमेश्वर ने व्यवस्था का पालन न करने पर भी धर्मी घोषित किया:
7 धन्य हैं वे,
जिनके अपराध क्षमा कर दिए गए,
जिनके पापों को ढाँप दिया गया है.
8 धन्य है वह व्यक्ति,
जिसके पापों का हिसाब प्रभु कभी न लेंगे.
ख़तना के पहले ही वह धर्मी घोषित किए गए
9 क्या यह आशीषें मात्र ख़तना वालों तक ही सीमित है या इसमें ख़तनारहित भी शामिल हैं? हमारा मत यह है: अब्राहाम के विश्वास को उनकी धार्मिकता के रूप में मान्यता दी गई. 10 उन्हें यह मान्यता किस अवस्था में दी गई थी? जब उनका ख़तना हुआ तब या जब वह ख़तना रहित ही थे? ख़तना की अवस्था में नहीं परन्तु ख़तना रहित अवस्था में. 11 उन्होंने ख़तना का चिह्न—विश्वास की धार्मिकता की मोहर—उस समय प्राप्त किया, जब वह ख़तना रहित ही थे इसका उद्धेश्य था उन्हें उन सब के पिता-स्वरूप प्रतिष्ठित किया जाए, जो बिना ख़तना के विश्वास करेंगे, कि इस विश्वास को उनकी धार्मिकता के रूप में मान्यता प्राप्त हो; 12 साथ ही अब्राहाम को उन ख़तना किए हुओं के पिता के रूप में प्रतिष्ठित किया जाए, जो ख़तना किए हुए ही नहीं परन्तु जो हमारे पिता अब्राहाम के उस विश्वास का स्वभाव रखते हैं, जो उन्होंने अपने ख़तना के पहले ही दिखाया था.
व्यवस्था के पालन मात्र से धार्मिकता नहीं
13 उस प्रतिज्ञा का आधार, जो अब्राहाम तथा उनके वंशजों से की गई थी कि अब्राहाम पृथ्वी के वारिस होंगे, व्यवस्था नहीं परन्तु विश्वास की धार्मिकता थी. 14 यदि व्यवस्था का पालन करने से उन्हें मीरास प्राप्त होती है तो विश्वास खोखला और प्रतिज्ञा बेअसर साबित हो गई है. 15 व्यवस्था क्रोध का पिता है किन्तु जहाँ व्यवस्था है ही नहीं, वहाँ व्यवस्था का उल्लंघन भी सम्भव नहीं!
16 परिणामस्वरूप विश्वास ही उस प्रतिज्ञा का आधार है, कि परमेश्वर के अनुग्रह में अब्राहाम के सभी वंशजों को यह प्रतिज्ञा निश्चित रूप से प्राप्त हो सके—न केवल उन्हें, जो व्यवस्था के अधीन हैं परन्तु उन्हें भी, जिनका विश्वास वैसा ही है, जैसा अब्राहाम का, जो हम सभी के कुलपिता हैं. 17 जैसा कि पवित्रशास्त्र का लेख है: मैंने तुम्हें अनेकों राष्ट्रों का पिता ठहराया है, हमारे कुलपिता अब्राहाम ने उन्हीं परमेश्वर में विश्वास किया, जो मरे हुओं को जीवन देते हैं तथा अस्तित्व में आने की आज्ञा उन्हें देते हैं, जो हैं ही नहीं.
अब्राहाम का विश्वास, मसीही विश्वास का आदर्श
18 बिलकुल निराशा की स्थिति में भी अब्राहाम ने उनसे की गई इस प्रतिज्ञा के ठीक अनुरूप उस आशा में विश्वास किया: वह अनेकों राष्ट्रों के पिता होंगे, ऐसे ही होंगे तुम्हारे वंशज. 19 अब्राहाम जानते थे कि उनका शरीर मरी हुए दशा में था क्योंकि उनकी आयु लगभग सौ वर्ष थी तथा साराह का गर्भ तो मृत था ही. फिर भी वह विश्वास में कमज़ोर नहीं हुए. 20 उन्होंने परमेश्वर की प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में अपने विश्वास में विचलित न होकर, स्वयं को उसमें मजबूत करते हुए परमेश्वर की महिमा की 21 तथा पूरी तरह निश्चिंत रहे कि वह, जिन्होंने यह प्रतिज्ञा की है, उसे पूरा करने में भी सामर्थी हैं. 22 इसलिए अब्राहाम के लिए यही विश्वास की धार्मिकता मानी गई. 23 उनके लिए धार्मिकता मानी गई, ये शब्द मात्र उन्हीं के विषय में नहीं हैं, 24 परन्तु इनका सम्बन्ध हमसे भी है, जिन्हें परमेश्वर की ओर से धार्मिकता की मान्यता प्राप्त होगी—हम, जिन्होंने विश्वास उनमें किया है—जिन्होंने हमारे प्रभु मसीह येशु को मरे हुओं से दोबारा जीवित किया, 25 जो हमारे अपराधों के कारण मृत्युदण्ड के लिए सौंपे गए तथा हमें धर्मी घोषित कराने के लिए दोबारा जीवित किए गए.
विश्वास उद्धार का आश्वासन है
5 इसलिए जब हम अपने विश्वास के द्वारा धर्मी घोषित किए जा चुके हैं, परमेश्वर से हमारा मेल-मिलाप हमारे प्रभु मसीह येशु के द्वारा हो चुका है, 2 जिनके माध्यम से विश्वास के द्वारा हमारी पहुँच उस अनुग्रह में है, जिसमें हम अब स्थिर हैं. अब हम परमेश्वर की महिमा की आशा में आनन्दित हैं. 3 इतना ही नहीं, हम अपने क्लेशों में भी आनन्दित बने रहते हैं. हम जानते हैं कि क्लेश में से धीरज; 4 धीरज में से खरा चरित्र तथा खरे चरित्र में से आशा उत्पन्न होती है 5 और आशा लज्जित कभी नहीं होने देती क्योंकि हमें दी हुई पवित्रात्मा द्वारा परमेश्वर का प्रेम हमारे हृदयों में उण्डेल दिया गया है.
6 जब हम निर्बल ही थे, सही समय पर मसीह येशु ने अधर्मियों के लिए मृत्यु स्वीकार की. 7 शायद ही कोई किसी व्यवस्था के पालन करने वाले के लिए अपने प्राण दे दे. हाँ, सम्भावना यह अवश्य है कि कोई किसी परोपकारी के लिए प्राण देने के लिए तैयार हो जाए 8 किन्तु परमेश्वर ने हमारे प्रति अपना प्रेम इस प्रकार प्रकट किया कि जब हम पापी ही थे, मसीह येशु ने हमारे लिए अपने प्राण त्याग दिए.
9 हम मसीह येशु के लहू के द्वारा धर्मी घोषित तो किए ही जा चुके हैं, इससे कहीं बढ़कर यह है कि हम उन्हीं के कारण परमेश्वर के क्रोध से भी बचाए जाएँगे. 10 जब शत्रुता की अवस्था में परमेश्वर से हमारा मेल-मिलाप उनके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हो गया तो इससे बढ़कर यह है कि मेल-मिलाप हो जाने के कारण उनके पुत्र के जीवन द्वारा हमारा उद्धार सुनिश्चित है. 11 इतना ही नहीं, मसीह येशु के कारण हम परमेश्वर में आनन्दित हैं जिनके कारण हम इस मेल-मिलाप की स्थिति तक पहुँचे हैं.
आदम तथा मसीह येशु
12 एक मनुष्य के कारण पाप ने संसार में प्रवेश किया तथा पाप के द्वारा मृत्यु ने और मृत्यु सभी मनुष्यों में समा गई—क्योंकि पाप सभी ने किया. 13 पाप व्यवस्था के प्रभावी होने से पहले ही संसार में मौजूद था लेकिन जहाँ व्यवस्था ही नहीं, वहाँ पाप गिना नहीं जाता! 14 आदम से मोशेह तक मृत्यु का शासन था—उन पर भी, जिन्होंने आदम के समान अनाज्ञाकारिता का पाप नहीं किया था. आदम उनके प्रतिरूप थे, जिनका आगमन होने को था.
15 अपराध, वरदान के समान नहीं. एक मनुष्य के अपराध के कारण अनेकों की मृत्यु हुई, जबकि परमेश्वर के अनुग्रह तथा एक मनुष्य, मसीह येशु के अनुग्रह में दिया हुआ वरदान अनेकों अनेक में स्थापित हो गया. 16 परमेश्वर का वरदान उसके समान नहीं, जो एक मनुष्य के अपराध के परिणामस्वरूप आया. एक ओर तो एक अपराध से न्यायदण्ड की उत्पत्ति हुई, जिसका परिणाम था दण्ड-आज्ञा मगर दूसरी ओर अनेकों अपराधों के बाद वरदान की उत्पत्ति हुई, जिसका परिणाम था धार्मिकता. 17 क्योंकि जब एक मनुष्य के अपराध के कारण एक ही मनुष्य के माध्यम से मृत्यु का शासन हो गया, तब इससे कहीं अधिक फैला हुआ है बड़ा अनुग्रह तथा धार्मिकता का वह वरदान, जो उनके जीवन में उस एक मनुष्य, मसीह येशु के द्वारा शासन करेगा.
18 इसलिए जिस प्रकार मात्र एक अपराध का परिणाम हुआ सभी के लिए दण्ड-आज्ञा, उसी प्रकार धार्मिकता के मात्र एक काम का परिणाम हुआ सभी मनुष्यों के लिए जीवन की धार्मिकता. 19 जिस प्रकार मात्र एक व्यक्ति की अनाज्ञाकारिता के परिणामस्परूप अनेकों अनेक पापी हो गए, उसी प्रकार एक व्यक्ति की आज्ञाकारिता से अनेक धर्मी बना दिए जाएँगे.
20 व्यवस्था बीच में आई कि पाप का अहसास तेज़ हो. जब पाप का अहसास तेज़ हुआ तो अनुग्रह कहीं अधिक तेज़ होता गया 21 कि जिस प्रकार पाप ने मृत्यु में शासन किया, उसी प्रकार अनुग्रह धार्मिकता के द्वारा हमारे प्रभु मसीह येशु में अनन्त जीवन के लिए शासन करे.
पाप के प्रति मरे हुए, परमेश्वर के लिए जीवित
6 तो फिर? क्या हम पाप करते जाएँ कि अनुग्रह बहुत होता जाए? 2 नहीं! बिलकुल नहीं! यह कैसे सम्भव है कि हम, जो पाप के प्रति मर चुके हैं, उसी में जीते रहें? 3 कहीं तुम इस सच्चाई से अनजान तो नहीं कि हम सभी, जो मसीह येशु में बपतिस्मा ले चुके हैं, उनकी मृत्यु में बपतिस्मा लिए हुए हैं? 4 इसलिए मृत्यु के बपतिस्मा में हम उनके साथ गाड़े जा चुके हैं कि जिस प्रकार मसीह येशु पिता के प्रताप में मरे हुओं में से जीवित किए गए, हम भी जीवन की नवीनता में व्यवहार करें.
5 यदि हम मसीह येशु की मृत्यु की समानता में उनके साथ जोड़े गए हैं तो निश्चित ही हम उनके पुनरुत्थान की समानता में भी उनके साथ जोड़े जाएँगे. 6 हमें यह मालूम है कि हमारा पहले का मनुष्यत्व मसीह येशु के साथ ही क्रूसित हो गया था कि हमारे पाप का शरीर निर्बल हो जाए और इसके बाद हम पाप के दास न रहें 7 क्योंकि जिसकी मृत्यु हो चुकी, वह पाप की अधीनता से अलग हो चुका.
8 अब, यदि मसीह येशु के साथ हमारी मृत्यु हो चुकी है, हमारा विश्वास है कि हम उनके साथ जीवित भी रहेंगे. 9 हम यह जानते हैं कि मरे हुओं में से जीवित मसीह येशु की मृत्यु अब कभी नहीं होगी. उन पर मृत्यु का अधिकार नहीं रहा. 10 उनकी यह मृत्यु हमेशा-हमेशा के लिए पाप के प्रति मृत्यु थी. अब उनका जीवन परमेश्वर से जुड़ा हुआ जीवन है.
11 इसलिए तुम भी अपने आप को पाप के प्रति मरा हुआ तथा मसीह येशु में परमेश्वर के प्रति जीवित समझो.
पाप नहीं परन्तु पवित्रता ही शासन करे
12 अतएव तुम अपने मरणशील शरीर में पाप का शासन न रहने दो कि उसकी लालसाओं के प्रति समर्पण करो. 13 अपने शरीर के अंगों को पाप के लिए अधर्म के साधन के रूप में प्रस्तुत न करते जाओ परन्तु स्वयं को मरे हुओं में से जीवितों के समान परमेश्वर के सामने प्रस्तुत करो तथा अपने शरीर के अंगों को परमेश्वर के लिए धार्मिकता के साधन के रूप में प्रस्तुत करो. 14 पाप की तुम पर प्रभुता नहीं रहेगी क्योंकि तुम व्यवस्था के नहीं परन्तु अनुग्रह के अधीन हो.
विश्वासी पाप के दासत्व से विमुक्त
15 तो? क्या हम पापमय जीवन में लीन रहें—क्योंकि अब हम व्यवस्था के नहीं परन्तु अनुग्रह के अधीन हैं? नहीं! बिलकुल नहीं! 16 क्या तुम्हें यह अहसास नहीं कि किसी के आज्ञापालन के प्रति समर्पित हो जाने पर तुम उसी के दास बन जाते हो, जिसका तुम आज्ञापालन करते हो? चाहे वह स्वामी पाप हो, जिसका अन्त है मृत्यु या आज्ञाकारिता, जिसका अन्त है धार्मिकता. 17 हम परमेश्वर के आभारी हैं कि तुम, जो पाप के दास थे, हृदय से उसी शिक्षा का पालन करने लगे हो, जिसके प्रति तुम समर्पित हुए थे 18 और अब पाप से छुटकारा पाकर तुम धार्मिकता के दास बन गए हो. 19 तुम्हारी शारीरिक दुर्बलताओं को ध्यान में रखते हुए मानवीय दृष्टि से मैं यह कह रहा हूँ: जिस प्रकार तुमने अपने अंगों को अशुद्धता और अराजकता के दासत्व के लिए समर्पित कर दिया था, जिसका परिणाम था दिनोंदिन बढ़ती अराजकता; अब तुम अपने अंगों को धार्मिकता के दासत्व के लिए समर्पित कर दो, जिसका परिणाम होगा परमेश्वर के लिए तुम्हारा अलग किया जाना.
पाप का परिणाम तथा पवित्रता का ईनाम
20 इसलिए कि जब तुम पाप के दास थे, तो धर्म की ओर से स्वतंत्र थे 21 इसलिए जिनके लिए तुम आज लज्जित हो, उन सारे कामों से तुम्हें कौनसा लाभांश उपलब्ध हुआ? क्योंकि उनका अंत तो मृत्यु है. 22 किन्तु अब तुम पाप से अलग होकर परमेश्वर के दास होकर वह लाभ कमा रहे हो, जिसका परिणाम है परमेश्वर के लिए अलग किया जाना और इसका अन्त है अनन्त जीवन. 23 क्योंकि पाप की मज़दूरी मृत्यु है किन्तु हमारे प्रभु मसीह येशु में परमेश्वर का वरदान अनन्त जीवन है.
शिष्य व्यवस्था से नहीं मसीह से जुड़े हैं
7 प्रियजन, तुम्हें, जो व्यवस्था से परिचित हो, क्या यह मालूम नहीं कि किसी भी व्यक्ति पर व्यवस्था की प्रभुता उसी समय तक रहती है जब तक वह जीवित है? 2 कानूनी तौर पर विवाहित स्त्री अपने पति से उसी समय तक बंधी रहती है जब तक उसका पति जीवित है किन्तु पति की मृत्यु होने पर वह कानूनी रूप से अपने पति से मुक्त हो जाती है. 3 यदि अपने पति के जीवित रहते हुए वह किसी अन्य पुरुष से संबंध बनाती है तो वह व्यभिचारिणी कहलाती है किन्तु अपने पति की मृत्यु के बाद वह कानूनी रूप से स्वतंत्र हो जाती है और अन्य पुरुष से विवाह करने पर व्यभिचारिणी नहीं कहलाती.
4 इसलिए मेरे प्रियजन, तुम भी मसीह के शरीर के द्वारा व्यवस्था के प्रति मरे हुए हो कि तुम अन्य से जुड़ जाओ—उनसे, जो मरे हुओं में से जीवित किए गए कि परमेश्वर के लिए हमारा जीवन फलदायी हो. 5 जिस समय हम पाप के स्वभाव द्वारा नियंत्रित थे, पाप की लालसायें, जो व्यवस्था द्वारा उत्तेजित की जाती थी, मृत्यु के फल के लिए हमारे अंगों में सक्रिय थी, 6 किन्तु अब हम उस के प्रति मरे सरीखे होकर, जिसने हमें बाँध रखा था, व्यवस्था से स्वतंत्र कर दिए गए हैं कि हम व्यवस्था द्वारा स्थापित पुरानी रीति पर नहीं परन्तु पवित्रात्मा द्वारा एक नई रीति में सेवा करने लग जाएँ.
व्यवस्था का उद्देश्य
7 तब क्या इससे यह सिद्ध होता है कि व्यवस्था दोषी है? नहीं! बिलकुल नहीं! इसके विपरीत, व्यवस्था के बिना मेरे लिए पाप को पहचानना ही असम्भव होता. मुझे लोभ के विषय में ज्ञान ही न होता यदि व्यवस्था यह आज्ञा न देता: लोभ मत करो. 8 पाप ने ही आज्ञा के माध्यम से अच्छा अवसर मिलने पर मुझमें हर एक प्रकार का लालच उत्पन्न कर दिया. यही कारण है कि व्यवस्था के बिना पाप मृत है. 9 एक समय था जब मैं व्यवस्था से स्वतंत्र अवस्था में जीवित था किन्तु जब आज्ञा का आगमन हुआ, पाप जीवित हुआ 10 और मेरी मृत्यु हो गई, और वह आज्ञा जिससे मुझे जीवित होना था, मेरी मृत्यु का कारण बनी 11 क्योंकि पाप ने, आज्ञा में के अवसर का लाभ उठाते हुए मुझे भटका दिया और इसी के माध्यम से मेरी हत्या भी कर दी. 12 इसलिए व्यवस्था पवित्र है और आज्ञा पवित्र, धर्मी और भली है.
13 तब, क्या वह, जो भला है, मेरे लिए मृत्यु का कारण हो गया? नहीं! बिलकुल नहीं! भलाई के द्वारा पाप ने मुझमें मृत्यु उत्पन्न कर दी कि पाप को पाप ही के रूप में प्रदर्शित किया जाए तथा आज्ञा के द्वारा यह बहुत ही पापमय हो जाए.
दो स्वभावों में द्वन्द्व
14 यह तो हमें मालूम ही है कि व्यवस्था आत्मिक है किन्तु मैं हूँ शारीरिक—पाप के दासत्व में पूरी तरह बिका हुआ! 15 यह इसलिए कि यह मेरी समझ से हमेशा से परे है कि मैं क्या करता हूँ—मैं वह नहीं करता, जो मैं करना चाहता हूँ परन्तु मैं वही करता हूँ, जिससे मुझे घृणा है. 16 इसलिए यदि मैं वही सब करता हूँ, जो मुझे अप्रिय है तो सच यह है कि मैं व्यवस्था से सहमत हूँ और स्वीकार करता हूँ कि यह सही है. 17 इसलिए अब ये काम मैं नहीं, मुझमें बसा हुआ पाप करता है. 18 यह तो मुझे मालूम है कि मुझ में अर्थात् मेरे शरीर में अंदर छिपा हुआ ऐसा कुछ भी नहीं, जो उत्तम हो. अभिलाषा तो मुझ में है किन्तु उसका करना मुझसे हो नहीं पाता. 19 वह हित, जिसकी मुझ में अभिलाषा है, मुझसे करते नहीं बनता परन्तु हो वह जाता है, जिसे मैं करना नहीं चाहता. 20 तब यदि मैं वह करता हूँ, जो मैं करना नहीं चाहता, तब वह मैं नहीं, परन्तु मुझमें बसा हुआ पाप ही है, जो यह सब करता है.
21 यहाँ मुझे इस सच का अहसास होता है कि जब भी मैं भलाई के लिए उतारू होता हूँ, वहाँ मुझसे बुराई हो जाती है. 22 मेरा भीतरी मनुष्यत्व तो परमेश्वर की व्यवस्था में प्रसन्न है 23 किन्तु मैं अपने शरीर के अंगों में एक दूसरी व्यवस्था देख रहा हूँ. यह मेरे मस्तिष्क में मौजूद व्यवस्था के विरुद्ध लड़ती है. इसने मुझे पाप की व्यवस्था का, जो मेरे शरीर के अंगों में मौजूद है, बन्दी बना रखा है. 24 कैसी दयनीय स्थिति है मेरी! कौन मुझे मेरी इस मृत्यु के शरीर से छुड़ाएगा? 25 धन्यवाद हो हमारे प्रभु मसीह येशु के द्वारा परमेश्वर का!
एक ओर तो मैं स्वयं अपने मस्तिष्क में परमेश्वर की व्यवस्था का दास हूँ किन्तु दूसरी ओर अपने शरीर में अपने पाप के स्वभाव का.
मसीही आत्मिक जीवन
8 इसलिए अब उनके लिए, जो मसीह येशु में हैं, दण्ड की कोई आज्ञा नहीं है 2 क्योंकि मसीह येशु में बसा हुआ, जीवन से संबंधित पवित्रात्मा की व्यवस्था ने, तुम्हें पाप और मृत्यु की व्यवस्था से मुक्त कर दिया है.
पवित्रात्मा में जीवन
3 वह काम, जो व्यवस्था मनुष्य के पाप के स्वभाव के कारण पूरा करने में असफल साबित हुई, परमेश्वर ने पूरा कर दिया—उन्होंने निज पुत्र को ही पापमय मनुष्य के समान बना कर पापबलि के रूप में भेज दिया. इस प्रकार उन्होंने पापमय शरीर में ही पाप को दण्डित किया 4 कि हम में, जो पापी स्वभाव के अनुसार नहीं परन्तु पवित्रात्मा के अनुसार स्वभाव रखते हैं, व्यवस्था की उम्मीदें पूरी हो जाएँ.
5-6 वे, जो पापी स्वभाव के हैं, उनका मन शारीरिक विषयों पर ही लगा रहता है, जिसका फल है मृत्यु तथा वे, जो पवित्रात्मा के स्वभाव के हैं, उनका मन पवित्रात्मा की अभिलाषाओं को पूरा करने पर लगा रहता है, जिसका परिणाम है जीवन और शान्ति. 7 पापी स्वभाव का मस्तिष्क परमेश्वर-विरोधी होता है क्योंकि वह परमेश्वर की व्यवस्था की अधीनता स्वीकार नहीं करता—वास्तव में यह करना उसके लिए असम्भव है. 8 पापी स्वभाव के मनुष्य परमेश्वर को संतुष्ट कर ही नहीं सकते.
9 किन्तु तुम पापी स्वभाव के नहीं परन्तु पवित्रात्मा में हो—यदि वास्तव में तुममें परमेश्वर की आत्मा वास करती है. जिस किसी में मसीह की आत्मा वास नहीं करती, वह मसीह का है ही नहीं. 10 अब इसलिए कि तुममें मसीह वास करता है, पाप के कारण शरीर के मृत होने पर भी धार्मिकता के कारण तुम्हारी आत्मा जीवित है 11 यदि तुममें परमेश्वर का आत्मा वास करता है, जिन्होंने मसीह येशु को मरे हुओं में से जीवित किया, तो वह, जिन्होंने मसीह येशु को मरे हुओं में से जीवित किया, तुम्हारे नाशमान शरीर को अपने उसी आत्मा के द्वारा, जिनका तुममें वास है, जीवित कर देंगे.
12 इसलिए प्रियजन, हम पापी स्वभाव के कर्ज़दार नहीं कि हम इसके अनुसार व्यवहार करें. 13 क्योंकि यदि तुम पापी स्वभाव के अनुसार व्यवहार कर रहे हो तो तुम मृत्यु की ओर हो किन्तु यदि तुम पवित्रात्मा के द्वारा पाप के स्वभाव के कामों को मारोगे तो तुम जीवित रहोगे.
परमेश्वर की सन्तान
14 वे सभी, जो परमेश्वर के आत्मा द्वारा चलाए जाते हैं, परमेश्वर की सन्तान हैं. 15 तुम्हें दासत्व की वह आत्मा नहीं दी गई, जो तुम्हें दोबारा भय की ओर ले जाये, परन्तु तुम्हें लेपालकपन की आत्मा प्रदान की गई है. इसी की प्रेरणा से हम पुकारते हैं, “अब्बा! पिता!” 16 स्वयं पवित्रात्मा हमारी आत्मा के साथ इस सच्चाई की पुष्टि करते हैं कि हम परमेश्वर की सन्तान हैं 17 और जब हम सन्तान ही हैं तो हम वारिस भी हैं—परमेश्वर के वारिस तथा मसीह येशु के सहवारिस—यदि हम वास्तव में उनके साथ यातनाएँ सहते हैं कि हम उनके साथ महिमित भी हों.
हमारे लिए निर्धारित होनेवाली महिमा
18 मेरे विचार से वह महिमा, हममें जिसका भावी प्रकाशन होगा, हमारे वर्तमान कष्टों से तुलनीय है ही नहीं! 19 सृष्टि बड़ी आशा भरी दृष्टि से परमेश्वर की सन्तान के प्रकट होने की प्रतीक्षा कर रही है. 20 सृष्टि को हताशा के अधीन कर दिया गया है. यह उसकी अपनी इच्छा के अनुसार नहीं परन्तु उनकी इच्छा के अनुसार हुआ है, जिन्होंने उसे इस आशा में अधीन किया है 21 कि स्वयं सृष्टि भी विनाश के दासत्व से छुटकारा पाकर परमेश्वर की सन्तान की महिमामय स्वतंत्रता प्राप्त करे.
22 हमें यह मालूम है कि सारी सृष्टि आज तक मानो प्रसव पीड़ा में कराह रही है. 23 इतना ही नहीं, हम भी, जिनमें होनेवाली महिमा के पहले से स्वाद चखने के रूप में पवित्रात्मा का निवास है, अपने भीतरी मनुष्यत्व में कराहते हुए आशा भरी दृष्टि से लेपालकपन प्राप्त करने अर्थात् अपने शरीर के छुटकारे की प्रतीक्षा में हैं. 24 हम इसी आशा में छुड़ाए गए हैं. जब आशा का विषय दृश्य हो जाता है तो आशा का अस्तित्व ही नहीं रह जाता. भला कोई उस वस्तु की आशा क्यों करेगा, जो सामने है? 25 यदि हमारी आशा का विषय वह है, जिसे हमने देखा नहीं है, तब हम धीरज से और अधिक आशा में उसकी प्रतीक्षा करते हैं. 26 इसी प्रकार पवित्रात्मा भी हमारी दुर्बलता की स्थिति में हमारी सहायता के लिए हमसे जुड़ जाते हैं क्योंकि हम नहीं जानते कि प्रार्थना किस प्रकार करना सही है किन्तु पवित्रात्मा स्वयं हमारे लिए मध्यस्थ होकर ऐसी आहों के साथ जो बयान से बाहर है प्रार्थना करते रहते हैं 27 तथा मनों को जाँचनेवाले परमेश्वर यह जानते हैं कि पवित्रात्मा का उद्धेश्य क्या है क्योंकि पवित्रात्मा परमेश्वर की इच्छा के अनुसार पवित्र लोगों के लिए प्रार्थना करते हैं.
उनकी ही महिमा में शामिल होने के लिए परमेश्वर की बुलाहट
28 हमें यह अहसास है कि जिन्हें परमेश्वर से प्रेम है तथा जिनकी बुलाहट परमेश्वर की इच्छा के अनुसार हुई है, उनके लिये सब बाते मिलकर भलाई ही को उत्पन्न करती. 29 यह इसलिए कि जिनके विषय में परमेश्वर को पहले से ज्ञान था, उन्हें परमेश्वर ने अपने पुत्र मसीह येशु के स्वरूप में हो जाने के लिए पहले से ठहरा दिया था कि मसीह येशु अनेक भाइयों में पहलौठे हो जाएँ. 30 जिन्हें परमेश्वर ने पहले से ठहराया, उनको बुलाया भी है; जिनको उन्होंने बुलाया, उन्हें धर्मी घोषित भी किया; जिन्हें उन्होंने धर्मी घोषित किया, उन्हें परमेश्वर ने महिमित भी किया.
परमेश्वर के प्रेम का गीत
31 तो इस विषय में क्या कहा जा सकता है? यदि परमेश्वर हमारे पक्ष में हैं तो कौन हो सकता है हमारा विरोधी? 32 परमेश्वर वह हैं, जिन्होंने अपने निज पुत्र को हम सबके लिए बलिदान कर देने तक में संकोच न किया. भला वह कैसे हमें उस पुत्र के साथ सभी कुछ उदारतापूर्वक न देंगे! 33 परमेश्वर के चुने हुओं पर आरोप भला कौन लगाएगा? परमेश्वर ही हैं, जो उन्हें निर्दोष घोषित करते हैं. 34 वह कौन है, जो उन्हें अपराधी घोषित करता है? मसीह येशु वह हैं, जिन्होंने अपने प्राणों का त्याग कर दिया, इसके बाद वह मरे हुओं में से जीवित किए गए, अब परमेश्वर के दायें पक्ष में आसीन हैं तथा वही हैं, जो हमारे लिए प्रार्थना करते हैं. 35 कौन हमें मसीह के प्रेम से अलग करेगा? क्लेश, संकट, सताहट, अकाल, कंगाली, जोखिम या तलवार से मृत्यु? 36 ठीक जैसा पवित्रशास्त्र में लिखा है:
“आपके लिए दिन भर हमारी हत्या होती है;
हम वध के लिए निर्धारित भेड़ों के समान समझे जाते हैं.”
37 मगर इन सब विषयों में हम उनके माध्यम से, जिन्होंने हमसे प्रेम किया है, जयवन्त से भी बढ़कर हैं. 38 क्योंकि मैं यह जानता हूँ, कि न तो मृत्यु, न जीवन, न स्वर्गदूत, न प्रधानताएं, न वर्तमान, न भविष्य, न सामर्थ्य 39 न उँचाई, न गहराई और न कोई और सृष्टि हमें हमारे प्रभु मसीह येशु में परमेश्वर के प्रेम से अलग कर सकती है.
इस्राएल का स्थान
9 मसीह में मैं यह सच प्रकट कर रहा हूँ—यह झूठ नहीं—पवित्रात्मा में मेरी अन्तरात्मा इस सच की पुष्टि कर रही है 2 कि मेरा हृदय अत्यन्त खेदित और बहुत पीड़ा में है. 3 मैं यह कामना कर सकता था कि अच्छा होता कि स्वयं मैं शापित होता—अपने भाइयों के लिए, जो शारीरिक रूप से मेरे सजातीय हैं—मसीह से अलग हो जाता. 4 ये सभी इस्राएली हैं. लेपालकपन के कारण उत्तराधिकार, महिमा, वाचाएँ, व्यवस्था, मन्दिर की सेवा-आराधना निर्देश तथा प्रतिज्ञाएँ इन्हीं की हैं. 5 पुरखे भी इन्हीं के हैं तथा शारीरिक पक्ष के अनुसार मसीह भी इन्हीं के वंशज हैं, जो सर्वोच्च हैं, जो युगानुयुग स्तुति के योग्य परमेश्वर हैं, आमेन.
परमेश्वर द्वारा प्रतिज्ञा-पूर्ति
6 क्या परमेश्वर की प्रतिज्ञा विफल हो गयी? नहीं! वास्तविक इस्राएली वे सभी नहीं, जो इस्राएल के वंशज हैं 7 और न ही मात्र अब्राहाम का वंशज होना उन्हें परमेश्वर की सन्तान बना देता है. इसके विपरीत, लिखा है: तुम्हारे वंशज इसहाक के माध्यम से नामित होंगे.
8 अर्थात् शारीरिक रूप से जन्मे हुए परमेश्वर की सन्तान नहीं परन्तु प्रतिज्ञा के अन्तर्गत जन्मे हुए ही वास्तविक सन्तान समझे जाते हैं 9 क्योंकि प्रतिज्ञा इस प्रकार की गई: अगले वर्ष मैं इसी समय दोबारा आऊँगा और साराह पुत्रवती होगी.
10 इतना ही नहीं, रिबैक्का भी एक अन्य उदाहरण हैं: जब उन्होंने गर्भ धारण किया. उनके गर्भ में एक ही पुरुष—हमारे पूर्वज इसहाक से दो शिशु थे. 11 यद्यपि अभी तक युगल शिशुओं का जन्म नहीं हुआ था तथा उन्होंने उचित-अनुचित कुछ भी नहीं किया था, परमेश्वर का उद्धेश्य उनकी ही इच्छा के अनुसार अटल रहा; 12 कामों के कारण नहीं परन्तु उनके कारण, जिन्होंने बुलाया है. रिबैक्का से कहा गया: जेठा अपने से छोटे के अधीन होगा. 13 जैसा कि पवित्रशास्त्र में लिखा है: याक़ोब मेरा प्रिय था किन्तु एसाव मेरे द्वारा अप्रिय.
न्याय्य परमेश्वर
14 तब इसका मतलब क्या हुआ? क्या इस विषय में परमेश्वर अन्यायी थे? नहीं! बिलकुल नहीं! 15 परमेश्वर ने मोशेह से कहा था,
“मैं जिस किसी पर चाहूँ,
कृपादृष्टि करूँगा और जिस किसी पर चाहूँ करुणा.”
16 इसलिए यह मनुष्य की इच्छा या प्रयासों पर नहीं परन्तु परमेश्वर की कृपादृष्टि पर निर्भर है. 17 पवित्रशास्त्र में फ़रोह को सम्बोधित करते हुए लिखा है, “तुम्हारी उत्पत्ति के पीछे मेरा एकमात्र उद्देश्य था तुम में मेरे प्रताप का प्रदर्शन कि सारी पृथ्वी में मेरे नाम का प्रचार हो.”
सर्वशक्तिमान परमेश्वर
18 इसलिए परमेश्वर अपनी इच्छा के अनुसार अपने चुने हुए जन पर कृपा करते तथा जिसे चाहते उसे हठीला बना देते हैं. 19 सम्भवत: तुममें से कोई यह प्रश्न उठाए, “तो फिर परमेश्वर हममें दोष क्यों ढूंढ़ते हैं? भला कौन उनकी इच्छा के विरुद्ध जा सकता है?” 20 तुम कौन होते हो कि परमेश्वर से वाद-विवाद का दुस्साहस करो? क्या कभी कोई वस्तु अपने रचनेवाले से यह प्रश्न कर सकती है, “मुझे ऐसा क्यों बनाया है आपने?” 21 क्या कुम्हार का यह अधिकार नहीं कि वह मिट्टी के एक ही पिण्ड से एक बर्तन अच्छे उपयोग के लिए तथा एक बर्तन साधारण उपयोग के लिए गढ़े?
22 क्या हुआ यदि परमेश्वर अपने क्रोध का प्रदर्शन और अपने सामर्थ्य के प्रकाशन के उद्देश्य से अत्यन्त धीरज से विनाश के लिए निर्धारित पात्रों की सहते रहे? 23 इसमें उनका उद्देश्य यही था कि वह कृपापात्रों पर अपनी महिमा के धन को प्रकाशित कर सकें, जिन्हें उन्होंने महिमा ही के लिए पहले से तैयार कर लिया था 24 हमें भी, जो उनके द्वारा बुलाए गए हैं, मात्र यहूदियों ही में से नहीं, परन्तु अन्यजातियों में से भी.
सब कुछ पुराने नियम में पहले से ही घोषित है
25 जैसा कि वह भविष्यद्वक्ता होशे के अभिलेख में भी कहते हैं:
“मैं उन्हें ‘अपनी प्रजा’ घोषित करूँगा,
जो मेरी प्रजा नहीं थे तथा उन्हें प्रिय सम्बोधित करूँगा, जो प्रियजन थे ही नहीं,”
26 और,
“जिस स्थान पर उनसे यह कहा गया था,
‘तुम मेरी प्रजा नहीं हो,’
उसी स्थान पर वे जीवित परमेश्वर की ‘सन्तान घोषित किए जाएँगे.’”
27 भविष्यद्वक्ता यशायाह इस्राएल के विषय में कातर शब्द में कहते हैं:
“यद्यपि इस्राएल के वंशजों की संख्या समुद्रतट की बालू के कणों के तुल्य है,
उनमें से थोड़े ही बचाए जाएंगे.
28 क्योंकि परमेश्वर पृथ्वी पर
अपनी दण्ड की आज्ञा का कार्य शीघ्र ही पूरा करेंगे.
29 ठीक जैसी भविष्यद्वक्ता यशायाह की पहले से लिखित बात है:
“यदि स्वर्गीय सेनाओं के प्रभु ने
हमारे लिए वंशज न छोड़े होते तो
हमारी दशा सोदोम,
और अमोराह नगरों के समान हो जाती.”
इस्राएल की असफलता का कारण
30 तब परिणाम क्या निकला? वे अन्यजाति, जो धार्मिकता को खोज भी नहीं रहे थे, उन्होंने धार्मिकता प्राप्त कर ली—वह भी वह धार्मिकता, जो विश्वास के द्वारा है. 31 किन्तु धार्मिकता की व्यवस्था की खोज कर रहा इस्राएल उस व्यवस्था के भेद तक पहुँचने में असफल ही रहा. 32 क्या कारण है इसका? मात्र यह कि वे इसकी खोज विश्वास में नहीं परन्तु मात्र रीतियों को पूरा करने के लिए करते रहे. परिणामस्वरूप उस ठोकर के पत्थर से उन्हें ठोकर लगी. 33 ठीक जैसा पवित्रशास्त्र का अभिलेख है:
मैं त्सिय्योन में एक ठोकर के पत्थर तथा ठोकर खाने की चट्टान की स्थापना कर रहा हूँ.
जो इसमें विश्वास रखता है,
वह लज्जित कभी न होगा.
उद्धार का कारण विश्वास
10 प्रियजन, उनका उद्धार ही मेरी हार्दिक अभिलाषा तथा परमेश्वर से मेरी प्रार्थना का विषय है. 2 उनके विषय में मैं यह गवाही देता हूँ कि उनमें परमेश्वर के प्रति उत्साह तो है किन्तु उनका यह उत्साह वास्तविक ज्ञान के अनुसार नहीं है. 3 परमेश्वर की धार्मिकता के विषय में अज्ञानता तथा अपनी ही धार्मिकता की स्थापना करने के उत्साह में उन्होंने स्वयं को परमेश्वर की धार्मिकता के अधीन नहीं किया. 4 उस हर एक व्यक्ति के लिए, जो मसीह में विश्वास करता है, मसीह ही धार्मिकता की व्यवस्था की समाप्ति हैं.
मोशेह का गवाह
5 मोशेह के अनुसार व्यवस्था पर आधारित धार्मिकता का पालन करनेवाला उसी धार्मिकता के द्वारा जीवित रहेगा. 6 किन्तु विश्वास पर आधारित धार्मिकता का भेद है: अपने मन में यह विचार न करो: स्वर्ग पर कौन चढ़ेगा, मसीह को उतार लाने के लिए? 7 “या ‘मसीह को मरे हुओं में से जीवित करने के उद्धेश्य से पाताल में कौन उतरेगा?’” 8 क्या है इसका मतलब: परमेश्वर का वचन तुम्हारे पास है—तुम्हारे मुख में तथा तुम्हारे हृदय में—विश्वास का वह सन्देश, जो हमारे प्रचार का विषय है: 9 इसलिए यदि तुम अपने मुख से मसीह येशु को प्रभु स्वीकार करते हो तथा हृदय में यह विश्वास करते हो कि परमेश्वर ने उन्हें मरे हुओं में से जीवित किया है तो तुम्हें उद्धार प्राप्त होगा 10 क्योंकि विश्वास हृदय से किया जाता है, जिसका परिणाम है धार्मिकता तथा स्वीकृति मुख से होती है, जिसका परिणाम है उद्धार. 11 पवित्रशास्त्र का लेख है: हर एक, जो उनमें विश्वास करेगा, वह लज्जित कभी न होगा. 12 यहूदी तथा यूनानी में कोई भेद नहीं रह गया क्योंकि एक ही प्रभु सबके प्रभु हैं, जो उन सबके लिए, जो उनकी दोहाई देते हैं, अपार सम्पदा हैं. 13 क्योंकि: हर एक, जो प्रभु को पुकारेगा, उद्धार प्राप्त करेगा.
अपनी रक्षा में इस्राएल की असमर्थता
14 वे भला उन्हें कैसे पुकारेंगे जिनमें उन्होंने विश्वास ही नहीं किया? वे भला उनमें विश्वास कैसे करेंगे, जिन्हें उन्होंने सुना ही नहीं? और वे भला सुनेंगे कैसे यदि उनकी उद्घोषणा करने वाला नहीं? 15 और प्रचारक प्रचार कैसे कर सकेंगे यदि उन्हें भेजा ही नहीं गया? जैसा कि पवित्रशास्त्र का लेख है: कैसे सुहावने हैं वे चरण जिनके द्वारा अच्छी बातों का सुसमाचार लाया जाता है!
16 फिर भी सभी ने ईश्वरीय सुसमाचार पर ध्यान नहीं दिया. भविष्यद्वक्ता यशायाह का लेख है: प्रभु! किसने विश्वास किया है हमारे प्रतिवेदन पर? 17 इसलिए स्पष्ट है कि विश्वास की उत्पत्ति होती है सुनने के माध्यम से तथा सुनना मसीह के वचन के माध्यम से. 18 किन्तु अब प्रश्न यह है: क्या उन्होंने सुना नहीं? निस्सन्देह उन्होंने सुना है:
उनका शब्द सारी पृथ्वी में तथा,
उनका सन्देश पृथ्वी के छोर तक पहुँच चुका है.
19 मेरा प्रश्न है, क्या इस्राएली इसे समझ सके? पहिले मोशेह ने कहा:
मैं एक ऐसे राष्ट्र के द्वारा तुममें जलनभाव उत्पन्न करूँगा,
जो राष्ट्र है ही नहीं.
मैं तुम्हें एक ऐसे राष्ट्र के द्वारा क्रोधित करूँगा, जिसमें समझ है ही नहीं.
20 इसके बाद भविष्यद्वक्ता यशायाह निडरतापूर्वक कहते हैं:
मुझे तो उन्होंने पा लिया, जो मुझे खोज भी नहीं रहे थे तथा मैं उन पर प्रकट हो गया,
जिन्होंने इसकी कामना भी नहीं की थी.
21 इस्राएल के विषय में परमेश्वर का कथन है:
मैं आज्ञा न माननेवाली और
हठीली प्रजा के सामने पूरे दिन हाथ पसारे रहा.
इस्राएल का शेषांश
11 तो मेरा प्रश्न यह है: क्या परमेश्वर ने अपनी प्रजा का त्याग कर दिया है? नहीं! बिलकुल नहीं! क्योंकि स्वयं मैं एक इस्राएली हूँ—अब्राहाम की सन्तान तथा बिन्यामीन का वंशज. 2 परमेश्वर ने अपनी पूर्वावगत [b]प्रजा का त्याग नहीं कर दिया या क्या तुम यह नहीं जानते कि पवित्रशास्त्र में एलियाह से सम्बन्धित भाग में क्या कहा गया है—इस्राएल के विरुद्ध होकर वह परमेश्वर से कैसे विनती करते हैं: 3 प्रभु, उन्होंने आपके भविष्यद्वक्ताओं की हत्या कर दी है, उन्होंने आपकी वेदियाँ ध्वस्त कर दीं. मात्र मैं शेष रहा हूँ और अब वे मेरे प्राणों के प्यासे हैं? 4 इस पर परमेश्वर का उत्तर क्या था? “मैंने अपने लिए ऐसे सात हज़ार व्यक्ति चुन रखे हैं, जो बाअल देवता के सामने नतमस्तक नहीं हुए हैं.” 5 ठीक इसी प्रकार वर्तमान में भी परमेश्वर के अनुग्रह में एक थोड़ा भाग चुना गया है. 6 अब, यदि इसकी उत्पत्ति अनुग्रह के द्वारा ही हुई है तो इसका आधार काम नहीं हैं नहीं तो अनुग्रह, अनुग्रह नहीं रह जाएगा.
7 तब इसका परिणाम क्या निकला? इस्राएलियों को तो वह प्राप्त हुआ नहीं, जिसे वे खोज रहे थे; इसके विपरीत जो चुने हुए थे, उन्होंने इसे प्राप्त कर लिया तथा शेष हठीले बना दिए गए. 8 ठीक जिस प्रकार पवित्रशास्त्र का लेख है:
परमेश्वर ने उन्हें जड़ता की स्थिति में डाल दिया कि
आज तक उनकी आँख देखने में तथा कान सुनने में असमर्थ हैं.
9 दाविद का लेख है:
उनके भोज्य पदार्थ उनके लिए परीक्षा और फन्दा
तथा ठोकर का पत्थर और प्रतिशोध बन जाएँ.
10 उनके आँखें अंधी हो देखने में असमर्थ हो जाएँ तथा उनकी कमर स्थायी रूप से झुक जाए.
भविष्य में यहूदी अपने निर्धारित स्थान पर लाए जाएँगे
11 तो मेरा प्रश्न यह है: क्या उन्हें ऐसी ठोकर लगी कि वे कभी न उठ पाएँ? नहीं! बिलकुल नहीं! यहूदियों के गिरने के द्वारा ही अन्यजातियों को उद्धार प्राप्त हुआ है कि यहूदियों में जलनभाव उत्पन्न हो जाए. 12 यदि उनकी गिरावट ही संसार के लिए धन तथा उनकी असफलता ही अन्यजातियों के लिए संपत्ति साबित हुई है तो कितना ज़्यादा होगा उन सभी की भरपूरी का प्रभाव!
13 अब मैं तुमसे बातें करता हूँ, जो अन्यजाति हो. अब, जबकि मैं अन्यजातियों के लिए प्रेरित हूँ, मुझे अपनी सेवकाई का गर्व है 14 कि मैं किसी भी रीति से कुटुम्बियों में जलनभाव उत्पन्न कर सकूँ तथा इसके द्वारा उनमें से कुछ को तो उद्धार प्राप्त हो सके; 15 क्योंकि यदि उनकी अस्वीकृति संसार से परमेश्वर के मेल-मिलाप का कारण बन गई है, तो उनकी स्वीकृति मरे हुओं में से जी उठने के अलावा क्या हो सकती है?
रोपी गई शाखाएँ
16 यदि भेंट का पहिला पेडा पवित्र ठहरा तो गुँधा हुआ सारा आटा ही पवित्र है. यदि की जड़ पवित्र है तो शाखाएँ भी पवित्र ही हुईं न? 17 किन्तु यदि कुछ शाखाएँ तोड़ी गईं तथा तुम, जो एक जंगली ज़ैतून हो, उनमें रोपे गए हो तथा उनके साथ ज़ैतून पेड़ की जड़ के अंग होने के कारण पौष्टिक सार के सहभागी बन गए हो 18 तो उन शाखाओं का घमण्ड़ न भरना. यदि तुम घमण्ड़ भरते ही हो तो इस सच्चाई पर विचार करो: यह तुम नहीं, जो जड़ के पोषक हो परन्तु जड़ ही है, जो तुम्हारा पोषक है. 19 तब तुम्हारा दूसरा तर्क होगा: “शाखाएँ तोड़ी गईं कि मुझे रोपा जा सके.” 20 ठीक है. किन्तु उन्हें तो उनके अविश्वास के कारण अलग किया गया किन्तु तुम स्थिर हो अपने विश्वास के कारण. इसके विषय में घमण्ड़ न भरते हुए श्रद्धाभाव को स्थान दो. 21 यदि परमेश्वर ने स्वाभाविक शाखाओं को भी न छोड़ा तो वह तुम पर भी कृपा नहीं करेंगे.
22 परमेश्वर की कृपा तथा उनकी कठोरता पर विचार करो: गिरे हुए लोगों के लिए कठोरता तथा तुम्हारे लिए कृपा—यदि तुम वास्तव में उनकी कृपा की सीमा में बने रहते हो नहीं तो तुम्हें भी काट कर अलग कर दिया जाएगा. 23 तब वे भी, यदि वे अपने अविश्वास के हठ में बने न रहें, रोपे जाएँगे क्योंकि परमेश्वर उन्हें रोपने में समर्थ हैं. 24 जब तुम्हें उस पेड़ से, जो प्राकृतिक रूप से जंगली ज़ैतून है, काट कर स्वभाव के विरुद्ध अच्छे तथा साटे हुए पेड़ में रोपा गया है, तब वे शाखाएँ, जो प्राकृतिक हैं, अपने ही मूल पेड़ में कितनी सरलतापूर्वक रोप ली जाएँगी!
पूरे इस्राएल का उद्धार
25 प्रियजन, मैं नहीं चाहता कि तुम इस भेद से अनजान रहो—ऐसा न हो कि तुम अपने ऊपर घमण्ड़ करने लगो—इस्राएलियों में यह कुछ भाग की कठोरता निर्धारित संख्या में अन्यजातियों के मसीह में आ जाने तक ही है. 26 इस प्रकार पूरा इस्राएल उद्धार प्राप्त करेगा—ठीक जिस प्रकार पवित्रशास्त्र का लेख है:
उद्धारकर्ता का आगमन त्सियोन से होगा.
वह याक़ोब से अभक्ति को दूर करेगा.
27 जब मैं उनके पाप हर ले जाऊँगा,
तब उनसे मेरी यही वाचा होगी.
28 ईश्वरीय सुसमाचार के दृष्टिकोण से तो वे तुम्हारे लिए परमेश्वर के शत्रु हैं किन्तु चुन लिए जाने के दृष्टिकोण से पूर्वजों के लिए प्रियजन. 29 परमेश्वर द्वारा दिया गया वरदान तथा उनकी बुलाहट अटल हैं. 30 ठीक जिस प्रकार तुमने, जो किसी समय परमेश्वर की आज्ञा न माननेवाले थे, अब उन यहूदियों की अनाज्ञाकारिता के कारण कृपादृष्टि प्राप्त की है. 31 वे अभी भी अनाज्ञाकारी हैं कि तुम पर दिखाई गई कृपादृष्टि के कारण उन पर भी कृपादृष्टि हो जाए. 32 इस समय परमेश्वर ने सभी को आज्ञा के उल्लंघन की सीमा में रख दिया है कि वह सभी पर कृपादृष्टि कर सकें.
परमेश्वर की करुणा और ज्ञान का स्तुति-गान
33 ओह! कैसा अपार है
परमेश्वर की बुद्धि और ज्ञान का भण्ड़ार! कैसे अथाह हैं उनके निर्णय!
तथा कैसा रहस्यमयी है उनके काम करने का तरीका!
34 भला कौन जान सका है परमेश्वर के मन को?
या कौन हुआ है उनका सलाहकार?
35 क्या किसी ने परमेश्वर को कभी कुछ दिया है
कि परमेश्वर उसे वह लौटाएँ?
36 वही हैं सब कुछ के स्रोत, वही हैं सब कुछ के कारक,
वही हैं सब कुछ की नियति—उन्हीं की महिमा सदा-सर्वदा हो, आमेन.
आत्मिक वन्दना-विधि
12 प्रियजन, परमेश्वर की बड़ी दया के प्रकाश में तुम सबसे मेरी विनती है कि तुम अपने शरीर को परमेश्वर के लिए परमेश्वर को भानेवाला जीवन तथा पवित्र बलि के रूप में भेंट करो. यही तुम्हारी आत्मिक आराधना की विधि है. 2 इस संसार के स्वरूप में न ढलो, परन्तु मन के नए हो जाने के द्वारा तुममें जड़ से परिवर्तन हो जाए कि तुम परमेश्वर की इच्छा को, जो उत्तम, ग्रहण करने योग्य तथा त्रुटिहीन है, सत्यापित कर सको.
विनम्रता तथा प्रेम
3 मुझे दिए गए बड़े अनुग्रह के द्वारा मैं तुममें से हर एक को सम्बोधित करते हुए कहता हूँ कि कोई भी स्वयं को अधिक न समझे, परन्तु स्वयं के विषय में तुम्हारा आकलन परमेश्वर द्वारा दिए गए विश्वास के परिमाण के अनुसार हो. 4 यह इसलिए कि जिस प्रकार हमारे शरीर में अनेक अंग होते हैं और सब अंग एक ही काम नहीं करते; 5 उसी प्रकार हम, जो अनेक हैं, मसीह में एक शरीर तथा व्यक्तिगत रूप से सभी एक दूसरे के अंग हैं. 6 इसलिए कि हमें दिए गए अनुग्रह के अनुसार हममें पवित्रात्मा द्वारा दी गई भिन्न-भिन्न क्षमताएँ हैं. जिसे भविष्यवाणी की क्षमता प्राप्त है, वह उसका उपयोग अपने विश्वास के अनुसार करे; 7 यदि सेवकाई की, तो सेवकाई में; सिखाने की, तो सिखाने में; 8 उपदेशक की, तो उपदेश देने में; सहायता की, तो बिना दिखावे के उदारतापूर्वक देने में; जिसे अगुवाई की, वह मेहनत के साथ अगुवाई करे तथा जिसे करुणा भाव की, वह इसका प्रयोग सहर्ष करे.
9 प्रेम निष्कपट हो; बुराई से घृणा करो; आदर्श के प्रति आसक्त रहो; 10 आपसी प्रेम में समर्पित रहो; अन्यों को ऊँचा सम्मान दो; 11 तुम्हारा उत्साह कभी कम न हो; आत्मिक उत्साह बना रहे; प्रभु की सेवा करते रहो; 12 आशा में आनन्द, क्लेशों में धीरज तथा प्रार्थना में नियमितता बनाए रखो; 13 पवित्र संतों की सहायता के लिए तत्पर रहो, आतिथ्य सत्कार करते रहो.
14 अपने सतानेवालों के लिए तुम्हारे मुख से आशीष ही निकले—आशीष—न कि शाप; 15 जो आनन्दित हैं, उनके साथ आनन्द मनाओ तथा जो शोकित हैं, उनके साथ शोक; 16 तुममें आपस में मेल भाव हो; तुम्हारी सोच में अहंकार न हो परन्तु उनसे मिलने-जुलने के लिए तत्पर रहो, जो समाज की दृष्टि में छोटे हैं; स्वयं को ज्ञानवान न समझो.
17 किसी के प्रति भी दुष्टता का बदला दुष्टता न हो; तुम्हारा स्वभाव सबकी दृष्टि में सुहावना हो; 18 यदि सम्भव हो तो यथाशक्ति सभी के साथ मेल बनाए रखो. 19 प्रियजन, तुम स्वयं बदला न लो—इसे परमेश्वर के क्रोध के लिए छोड़ दो, क्योंकि शास्त्र का लेख है: बदला लेना मेरा काम है, प्रतिफल मैं दूँगा. प्रभु का कथन यह भी है:
20 यदि तुम्हारा शत्रु भूखा है, उसे भोजन कराओ,
यदि वह प्यासा है, उसे पानी दो;
ऐसा करके तुम उसके सिर पर अंगारों का ढेर लगा दोगे.
21 बुराई से न हारकर बुराई को भलाई के द्वारा हरा दो.
अधिकारियों की अधीनता—एक मसीही गुण
13 तुम में से हरेक प्रशासनिक अधिकारियों के अधीन रहे. यह इसलिए कि परमेश्वर द्वारा ठहराए अधिकारी के अलावा अन्य कोई अधिकारी नहीं है. वर्तमान अधिकारी परमेश्वर के द्वारा ही ठहराए गए हैं. 2 इसलिए वह, जो अधिकारी का विरोध करता है, परमेश्वर के आदेश का विरोधी है और ऐसे विरोधी स्वयं अपने ऊपर दण्ड ले आएंगे. 3 राजा अच्छे काम के लिए नहीं परन्तु बुरे काम के लिए भय के कारण हैं. क्या तुम अधिकारियों से निर्भय रहना चाहते हो? तो वही करो, जो उचित है. इस पर तुम्हें अधिकारी की सराहना प्राप्त होगी 4 क्योंकि अधिकारी तुम्हारे ही हित में परमेश्वर का सेवक है किन्तु यदि तुम वह करते हो, जो बुरा है तो डरो क्योंकि उसके हाथ में तलवार व्यर्थ नहीं है. वह अधिकारी परमेश्वर द्वारा चुना हुआ सेवक है—कुकर्मियों के दण्ड के लिए प्रतिशोधी. 5 इसलिए यह सही है कि सिर्फ दण्ड के भय के कारण ही नहीं परन्तु अन्तरात्मा के हित में भी अधीन रहा जाए.
6 तुम इसी कारण राज्य-कर भी चुकाते हो कि राजा परमेश्वर-निधर्मी सेवक हैं और इसी काम के लिए समर्पित हैं. 7 जिसे जो कुछ दिया जाना निर्धारित है, उसे वह दो: जिसे कर देना है, उसे कर दो; जिसे शुल्क, उसे शुल्क; जिनसे डरना है, उनसे डरो तथा जो सम्मान के अधिकारी हैं, उनका सम्मान करो.
पारस्परिक प्रेम तथा व्यवस्था
8 आपसी प्रेम के अलावा किसी के कर्ज़दार न हो. वह जो अपने पड़ोसी से प्रेम करता है, उसने व्यवस्था का पालन कर लिया 9 क्योंकि: व्यभिचार मत करो, हत्या मत करो, चोरी मत करो, लोभ मत करो, तथा इसके अतिरिक्त यदि कोई भी अन्य आज्ञा हो तो उसका सार यही है: अपने पड़ोसी के लिए तुम्हारा प्रेम वैसा ही हो जैसा तुम्हारा स्वयं के लिए है. 10 प्रेम पड़ोसी का बुरा नहीं करता. इसलिए प्रेम व्यवस्था की पूर्ति है.
ज्योति की सन्तान
11 आवश्यक है कि तुम समय को पहचानो. तुम्हारा नींद से जाग जाने का समय आ चुका है. उस समय की तुलना में, जब हमने इस विश्वास को अपनाया था, हमारे उद्धार की पूर्ति पास है. 12 रात समाप्त होने पर है. दिन का आरम्भ हो रहा है. इसलिए हम अन्धकार के कामों को त्याग कर ज्योति के शस्त्र धारण कर लें. 13 हमारा स्वभाव समय के अनुसार—दिन के अनुकूल हो, न कि लीला-क्रीड़ा, पियक्कड़पन, व्यभिचार, लुचपन, झगड़ा तथा जलन से भरा, 14 परन्तु प्रभु मसीह येशु को धारण कर लो तथा शरीर की अभिलाषाओं को पूरा करने का उपाय न करो.
अन्यों के प्रति व्यवहार
14 विश्वास में कमज़ोर व्यक्ति को उसकी मान्यताओं के विषय में किसी भी शंका के बिना ही स्वीकार करो. 2 एक व्यक्ति इस विश्वास से सब कुछ खाता है कि सभी कुछ भोज्य है किन्तु जिसका विश्वास निर्बल है, वह मात्र साग-पात ही खाता है. 3 वह, जो सब कुछ खाता है, उसे तुच्छ दृष्टि से न देखे, जो सब कुछ नहीं खाता; इसी प्रकार वह, जो सब कुछ नहीं खाता, उस पर दोष न लगाए, जो सब कुछ खाता है क्योंकि परमेश्वर ने उसे स्वीकार कर ही लिया है, जो सब कुछ नहीं खाता. 4 कौन हो तुम, जो किसी और के सेवक पर उँगली उठा रहे हो? सेवक स्थिर रहे या गिरे, यह उसके स्वामी की ज़िम्मेदारी है. वह स्थिर ही होगा क्योंकि प्रभु उसे स्थिर करने में समर्थ हैं.
5 कोई किसी एक विशेष दिन को महत्व देता है जबकि किसी अन्य के लिए सभी दिन एक समान होते हैं. हर एक अपनी-अपनी धारणा में ही पूरी तरह निश्चित रहे. 6 जो व्यक्ति किसी विशेष दिन को महत्व देता है, वह उसे प्रभु के लिए महत्व देता है तथा वह, जो सब कुछ खाता है, प्रभु के लिए खाता है क्योंकि वह इसके लिए परमेश्वर के प्रति धन्यवाद प्रकट करता है तथा जो नहीं खाता, वह प्रभु का ध्यान रखते हुए नहीं खाता तथा वह भी परमेश्वर ही के प्रति धन्यवाद प्रकट करता है. 7 हममें से किसी का भी जीवन उसका अपना नहीं है और न ही किसी की मृत्यु स्वयं उसके लिए होती है 8 क्योंकि यदि हम जीवित हैं तो प्रभु के लिए और यदि हमारी मृत्यु होती है, तो वह भी प्रभु के लिए ही. इसलिए हम जीवित रहें या हमारी मृत्यु हो, हम प्रभु ही के हैं. 9 यही वह कारण है कि मसीह की मृत्यु हुई तथा वह मरे हुओं में से जीवित हो गए कि वह जीवितों तथा मरे हुओं दोनों ही के प्रभु हों. 10 किन्तु तुम साथी पर आरोप क्यों लगाते हो? या तुम उसे तुच्छ क्यों समझते हो? हम सभी को परमेश्वर के न्यायासन के सामने उपस्थित होना है.
11 पवित्रशास्त्र का लेख है:
“‘मेरे जीवन की सौगन्ध,’ यह प्रभु का कहना है
‘हर एक घुटना मेरे सामने झुक जाएगा,
हर एक जीभ परमेश्वर को स्वीकार करेगी.’”
12 हममें से हरेक परमेश्वर को स्वयं अपना हिसाब देगा.
13 अतएव अब से हम एक-दूसरे पर आरोप न लगाएं परन्तु यह निश्चय करें कि हम अपने भाई के मार्ग में न तो बाधा उत्पन्न करेंगे और न ही ठोकर का कोई कारण. 14 मुझे यह मालूम है तथा प्रभु मसीह येशु में मैं पूरी तरह से निश्चित हूँ कि अपने आप में कुछ भी अशुद्ध नहीं है. यदि किसी व्यक्ति ने किसी वस्तु को अशुद्ध मान ही लिया है, वह उसके लिए ही अशुद्ध है. 15 यदि आपके भोजन के कारण साथी उदास होता है तो तुम्हारा स्वभाव प्रेम के अनुसार नहीं रहा. अपने भोजन के कारण तो उसका विनाश न करो, जिसके लिए मसीह ने अपने प्राण दिए! 16 इसलिए जो तुम्हारी दृष्टि में तुम्हारे लिए सही और उचित है, उसके विषय में अन्यों को निन्दा करने का अवसर न मिले 17 क्योंकि परमेश्वर का राज्य मात्र खान-पान के विषय में नहीं परन्तु पवित्रात्मा में धार्मिकता, शान्ति तथा आनन्द में है. 18 जो कोई मसीह की सेवा इस भाव में करता है, वह परमेश्वर को ग्रहण योग्य तथा मनुष्यों द्वारा भाता है.
19 हम अपने सभी प्रयास पारस्परिक और एक-दूसरे की उन्नति की दिशा में ही लक्षित करें. 20 भोजन को महत्व देते हुए परमेश्वर के काम को न बिगाड़ो. वास्तव में सभी भोज्य पदार्थ स्वच्छ हैं किन्तु ये उस व्यक्ति के लिए बुरे हो जाते हैं, जो इन्हें खाकर अन्य के लिए ठोकर का कारण बनता है. 21 सही यह है कि न तो माँस का सेवन किया जाए और न ही दाख़रस का या ऐसा कुछ भी किया जाए, जिससे साथी को ठोकर लगे.
22 इन विषयों पर अपने विश्वास को स्वयं अपने तथा परमेश्वर के मध्य सीमित रखो. धन्य है वह व्यक्ति, जिसकी अन्तरात्मा उसके द्वारा स्वीकृत किए गए विषयों में उसे नहीं धिक्कारती. 23 यदि किसी व्यक्ति को अपने खान-पान के विषय में संशय है, वह अपने ऊपर दोष ले आता है क्योंकि उसका खान-पान विश्वास से नहीं है. जो कुछ विश्वास से नहीं, वह पाप है.
New Testament, Saral Hindi Bible (नए करार, सरल हिन्दी बाइबल) Copyright © 1978, 2009, 2016 by Biblica, Inc.® All rights reserved worldwide.